ग़ज़ल



इष्‍ट देव सांकृत्‍यायन

क्‍यों कर इतना उलझा मैं ताना-बाना ढूंढ रहा हूं
पल भर शीश छिपाने को आशियाना ढूंढ रहा हूं
वर्षों पहले एक खिलौना लिया था मैंने मेले में
नए खिलौनों से ऊबा मैं, वही पुराना ढूंढ रहा हूं
किसी के मन का कहां यहां कुछ होता है कब
जो है उससे जुडने का नया बहाना ढूंढ रहा हूं
जिससे कई दिनों से मिलना हो न सका ऐसे ही
कई दिनों से उसका ही पता-ठिकाना ढूंढ रहा हूं
कहकर और सपर कर अकसर लड़ने आता था
बचपन का वह दोस्‍त दिवाना ढूंढ रहा हूं
मीलों पैदल चल स्‍कूल पहुंचते सबक जिए जाते
एसी बिल्डिंग के धोखे में वही ज़माना ढूंढ रहा हूं
बोझ बने हैं हाथ करोडों, झेले झेल न जाएं
बनता हो कुछ काम जहां, कारखाना ढूंढ रहा हूं


Comments

  1. दोस्‍त दिवाना ढूंढ रहा हूं aapkaa ye roop bahut khoob hai mere mitra

    ReplyDelete

Post a Comment

सुस्वागतम!!

Popular posts from this blog

रामेश्वरम में

इति सिद्धम

Bhairo Baba :Azamgarh ke

Most Read Posts

रामेश्वरम में

Bhairo Baba :Azamgarh ke

इति सिद्धम

Maihar Yatra

Azamgarh : History, Culture and People

पेड न्यूज क्या है?

...ये भी कोई तरीका है!

विदेशी विद्वानों के संस्कृत प्रेम की गहन पड़ताल

सीन बाई सीन देखिये फिल्म राब्स ..बिना पर्दे का

आइए, हम हिंदीजन तमिल सीखें