खेल भावना की ऐतिहासिक मजबूरी

केशव
सिडनी में हुए कोलाहल के बाद आज से पर्थ टेस्ट शुरू हो गया और पहली इनिंग्स में भारत ने ठीक प्रदर्शन भी कर दिया. अब चूँकि सबका गुस्सा थोडे काबू में आ गया है तो चलिए ज़रा कुछ कठोर और कटु सत्यों पर बात की जाए. चाचा नेहरू का मैं प्रशंसक हूँ और उनकी तमाम बातों में मुझे काफी सार भी नज़र आता है, पर पहले एशियन खेलों के उद्घाटन पर उन्होने एक लाइन कही थी उससे मैं कतई इत्तेफाक नही रखता. उनका कहना था कि खेल को जीत या हार के तराजू में तौलने के बजाये खेल की भावना से खेला जाना चाहिए. मेरा मानना कुछ और है. जिन्हें मानव इतिहास और मानव के विकास कि ज्यादा जानकारी नही है वे ऐसी बातें करें तो समझ में आता है. ये बात काबिले गौर है कि संस्कृति के विकास के बाद मनुष्य ने अपने अन्दर छिपी आदिम आक्रामकता को संभ्रांत तरीके से प्रदर्शित करने के लिए खेल ईजाद किये. लेकिन नियम और कायदों की आड़ खड़ी करने के बावजूद ये बात जल्दी ही साफ हो गई कि जैसे ही खेल कि गहमा गहमी बढ़ती तो आदमी के अन्दर छिपा हुआ जानवर अपने पूरे जंगली स्वरूप में बाहर आ जाता. ये स्थिति रोमन काल से ही चली आ रही है और मानव के विकास के १० लाख साल के इतिहास में सभ्यता का इतिहास चूँकि कुल १० या १५ हजार साल पुराना है इसलिए आभिजत्य का असर उसके व्यक्तित्व पर उतना ही गहरा है जितना शरीर पर खाल की तह. ऐसे में खेल को खेल की भावना से खेलने वाला आदर्श पूजनीय तो है पर अनुकरणीय वो कम से कम १० या २० हजार साल बाद ही हो पाएगा.

आस्ट्रलियाई टीम इस ऐतिहासिक मजबूरी को समझती है और बिना किसी शर्म के अपने अन्दर मौजूद जानवर को बेलगाम करती है ताकि वो जीत सके. वो जीत के मनोविज्ञान को भी समझते हैं और ये जानते हैं कि इतिहास और रेकॉर्ड हमेशा विजेता ही लिखते हैं और उनके वंशज ही उसे पढ़ पाते हैं. हारा हुआ आदमी या जाति या तो खलनायक होती है या बेचारी जिसमें कुछ एक खूबियाँ थीं पर वो इतनी बेहतर नही थी कि खुद इतिहास लिख सके. हममें इस समझ की कमी है आस्ट्रेलिया ने सिडनी टेस्ट नही जीता है बल्कि एक सोच की ओर इशारा किया है कि खेल में जीतने के लिए हुनर के साथ-साथ आदिम आक्रामकता भी बेहद ज़रूरी है. सौरव गांगुली ने सिडनी टेस्ट के बाद एक इंटरव्यू में कहा था कि आस्ट्रेलिया कि टीम जीतने के लिए उतावली थी, इसिलिये शायद वो इतने मैंच जीतती है.

आज भी हमारी रगों में अपने आदिम पूर्वजों का ही खून दौड़ता है खेल एक प्रतिस्पर्धा है और जैसे ही कोई मुक़ाबला शुरू होता है तो हमारी आदिम प्रकृति उभर कर सामने आती है और हमारा तन मन उसे हार या जीत के मुक़ाबले कि तरह देखने लगता है. जो व्यक्ति आदर्श या संस्कृति की आड़ में इस नैसर्गिक प्रकृति को पूरी तरह उभरने से रोकता है वो जीत नही सकता. खेल एक युद्ध है जो लड़ने से पहले ही मन ही मन जीत लिया जाता है. विजेता हमेशा जीत का लक्ष्य मन में रख कर खेलता है और पराजित हमेशा हार के खौफ के साथ मैदान में उतरता है. आस्ट्रेलिया और भारत में काबलियत का उतना फर्क नही है जितना कि इस मानसिकता का. जिस दिन हम भी विजय का लक्ष्य रखेंगे और जीत से न तो झेपेंगे और न ही उसके मिलने पर ग्लानी या अपराध बोध से भर जाएँगे उस दिन हमारी हार का सिलसिला ख़त्म हो जाएगा.

Comments

Popular posts from this blog

रामेश्वरम में

इति सिद्धम

Bhairo Baba :Azamgarh ke

Most Read Posts

रामेश्वरम में

Bhairo Baba :Azamgarh ke

इति सिद्धम

Maihar Yatra

Azamgarh : History, Culture and People

पेड न्यूज क्या है?

...ये भी कोई तरीका है!

विदेशी विद्वानों के संस्कृत प्रेम की गहन पड़ताल

सीन बाई सीन देखिये फिल्म राब्स ..बिना पर्दे का

आइए, हम हिंदीजन तमिल सीखें