काँवड़ियों के उत्पात का सच


ऐसे तो आज त्रयोदशी है, भारतीय लोक में शिव को समर्पित सावन माह की शिवरात्रि. कांवड़ यात्रा आज देश भर में समाप्त हो जानी चाहिए. अगर कहीं कुछ लोग छूट गए होंगे, किसी कारणवश किसी को रास्ता तय करने में देर हो गई हो तो वह भी अगले दो-तीन दिन में अपनी यात्रा संपन्न कर लेगा. लेकिन बमुश्किल चार-छह दिन की लोकमंगल की कामना के साथ की गई यह यात्रा बहुत लोगों के लिए बर्दाश्त के बाहर होती है. मैं समझ नहीं पाता कि क्यों?

मुझे गोरखपुर में कांवड़ियों से कभी कोई परेशानी नहीं हुई. दिल्ली एनसीआर में 2002 से देख रहा हूँ. अगर बहुत हुआ तो दस-बीस मिनट के लिए रास्ता रुक जाता है और रास्ता रुकने पर स्वाभाविक रूप से जाम लग जाता है. कांवड़ियों के निकलते ही रास्ता फिर खुल जाता है. लेकिन जाम दिल्ली में कब नहीं लगता? क्या सामान्य दिनों में, राजनैतिक रैलियों के समय, दूसरे पर्व-त्योहारों पर या बच्चों की रैलियों के समय जाम नहीं लगते? इनकी तो छोड़िए, आए दिन ट्रैफिक नियमों के उल्लंघन के ही चलते कितना जाम लगता है, इसका खयाल लोगों को कभी क्यों नहीं आता?

कांवड़िए मुझे कभी हुड़दंग करते नहीं दिखे. हाँ, हुड़दंग के नाम पर अगर देखें तो इधर एक प्रवृत्ति मैं जरूर देख रहा हूँ. पिछले करीब दस वर्षों से. ट्रक पर डीजे बजाते हुए जाने की. उससे थोड़ा शोर मचता है लेकिन वह शोर भी क्षणिक ही होता है.

कुछ लोगों को काँवडियों के दुपहियों पर ट्रिप्लिंग करने और बिना हेलमेट के जाने को लेकर बड़ी समस्या है. क्यों भाई? क्या भारत में सभी लोग हेलमेट लगाकर बाइक चलाते हैं? क्या आपने कभी दुपहिये पर ट्रिप्लिंग नहीं की? अगर की तो यह अकेले काँवड़िए का दोष कैसे हुआ? ट्रैफिक के नियम तोड़ना, बिना हेलमेट के चलना, ट्रिप्लिंग करना, बेवजह रेसिंग करना और रोडरेज... ये सब तो हमारे यहाँ सड़क के शौर्य माने जाते हैं. फिर यह अकेले काँवड़ियों की अराजकता कैसे हुई? काँवड़िए क्या कोई किसी दूसरे सौर मंडल से आते हैं जो आप उनसे अपने से भिन्न अपेक्षा करते हैं?

समस्या सबसे ज़्यादा उन्हें है जिन्हें सड़क पर हंटर और तलवारबाजी से कभी दिक्कत नहीं हुई. यहीं दिल्ली में एक पर्व पर कई बसें, कई ट्रक और कारें जला दिए जाने, पत्थरबाजी और तमाम लोगों के घायल कर दिए जाने पर कोई एतराज नहीं हुआ. केवल ऊँची आवाज में गाना चलाते हुए जाने या रेसिंग या बिना हेलमेट जाने पर ऐसा कौन सा पहाड़ टूट पड़ा जो उस दिन नहीं हुआ?

एक और बातदिल्ली-एनसीआर से होकर गुज़रने वाली काँवड़ यात्रा में मात्र पाँच-छह दिनों के दौरान लाखों लोग शामिल होते हैं और इनमें 90 प्रतिशत कंधों पर काँवड़ लेकर पैदल चलते हैं. पूरी पवित्रता और गजब के अनुशासन के साथ. इनमें अधिकतर लोग आपस में हँसी मजाक तक नहीं करते. क्योंकि उनकी कोशिश पूरे रास्ते नमः शिवाय का जप करते चलने की होती है. अपने आप में मगन. आजकल कुछ लोग कमर में डिब्बे लपेट कर भी चलते हैं. यह केवल आसानी के लिए होता है. इनका प्रतिशत 8 या 9 से ज्यादा नहीं है.

ट्रक-कार या स्कूटर-मोटरसाइकिल वाले काँवड़ियों की तादाद सही पूछिए तो एक प्रतिशत भी नहीं है. और इनमें भी सभी डीजे या ट्रिप्लिंग वाले नहीं होते और न सभी रेसिंग करते हैं. इन 0.01 प्रतिशत से भी कम तादाद वाले कुछ भटके हुए तथाकथित काँवड़ियों [मने सचमुच धर्म के रास्ते से थोड़े भटकाव से ज्यादा यह कुछ और नहीं है] के लिए क्या आप सभी को बदनाम करेंगे?

क्यों भाई?

ऐसा न सोचें कि मैं इन भटके हुए काँवड़ियों का समर्थन कर रहा हूँ. भटके हुए पत्थरबाजों और लैंडमाइन या बंदूकबाजों को समर्थन देना आपकी दृष्टि में धर्म हो सकता है, उनके इस कृत्य के पीछे आप सौ-सौ कुतर्क तैयार कर सकते हैं [ऐसे कुतर्क जो कि आपस में ही लड़ रहे होते हैं] लेकिन 0.01 प्रतिशत लोगों का मामूली भटकाव आप बर्दाश्त नहीं कर सकते. बाकी समय और बाकी लोगों द्वारा हेल्मेट त्याग, ट्रिप्लिंग और रेसिंग भारत में आम बात हो सकती है, लेकिन काँवड़ के समय यह अराजकता हो जाती है. क्यों भाई?

पूरे भारत में होने वाली इस यात्रा में लाखों नहीं, करोड़ों की तादाद में लोग शामिल होते हैं. लोकमंगल के इतने बड़े महायज्ञ में, जो पूरी तरह स्वतःस्फूर्त होता है, देश भर में दस घटनाएँ भी काँवड़ियों द्वारा सड़कजाम लगाने की नहीं होतीं. देश भर में दो-चार में कहीं एकाध बार बमुश्किल एक-दो जगह ऐसा होता है कि काँवड़िए सचमुच की अराजकता पर उतर आएँ और उतने के लिए इतना कोसना...? क्यों भाई?

आख़िर वजह क्या है? काँवड़यात्रा क्यों आपको इतना चिढ़ाती है?

मैं जानता हूँ, आपको भी और काँवड़ियों को भी और दोनों को अपने अनुभव से ही जानता हूँ.

आगे अपना अनुभव ही बताउंगा. 




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