Kya Haal Sunaavan-- book review




समीक्षा     (नरेन्द्र मोहन की आत्मकथा - क्या हाल सुनावाँ)

आत्मकथा के बहाने समय से विमर्श

                                         - हरिशंकर राढ़ी 



हिंदी साहित्य में आत्मकथा लेखन का प्रारंभ निश्चित ही देर से हुआ किंतु समृद्धि तक पहुंचने में इसे बहुत समय नहीं लगा। आज साहित्य जगत के ही नहीं, कला के विभिन्न क्षेत्रों, खेलों और यहां तक की राजनीति जगत के व्यक्तित्वों ने आत्मकथा को अपने समय, समाज और जीवन की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है। संस्कृत साहित्य और संस्कार से शुरू भारतीय साहित्य आत्मप्रशंसा के बजाय लोक कल्याण और लोक जीवन को अधिक महत्त्व देता रहा, संभवतः इसी कारण भारतीय भाषाओं में आत्मकथा का अभाव रहा। प्राचीन साहित्यकारों के आत्मपरिचय के अभाव का दंश आज भी पूरा साहित्य जगत झेल रहा है। विश्व साहित्य के प्रभाव और आत्मकथ्य की बेचैनी ने हिंदी में भी आत्मकथा लेखन को बढ़ावा दिया और आज का हर लेखक या कवि आत्मकथा के बहाने उन सभी भावों तथा अनुभवों को उद्गार देना चाहता है जिसे वह अपने साहित्य में नहीं दे पाया है।
कुछ आत्मकथाएं केवल आत्मपरिचय और निजी सुख-दुख के दायरे तक ही सिमटकर रह जाती हैं, भले ही उनमें अनुभवों और भावनाओं का प्रवाह सघन हो। वे केवल एक व्यक्ति का जीवन लेकर चलती हैं तथा अपने समय और समाज को परिभाषित नहीं कर पातीं। वे पढ़ी तो जाती हैं किंतु शीघ्र ही भुला दी जाती हैं क्योंकि वे पाठक को विस्तृत फलक से जोड़ नहीं पातीं। वहीं दूसरी ओर कुछ आत्मकथाएं ऐसी होती हैं जो लेखक के निजी संस्मरणों को सामाजिक और साहित्यिक मान्यता प्रदान करती हुई चलती हैं। वे एक जीवन न होकर अपने समय की इतिहास और संस्कृति होती हैं। वे अपने समय के समाज को व्याख्यायित करती हैं और एक संकुचित दृश्य न देकर पैनोरमा बनाती हैं। ऐसी आत्मकथाएं साहित्य और समाज दोनों के लिए थाती हो जाती हैं।
कमोबेश दूसरी बिरादरी की ही एक आत्मकथा नरेन्द्र मोहन की लेखनी से आई है - क्या हाल सुनावाँ। इस आत्मकथा के पृष्ठों से गुजरते हुए वक्त लगता है और लगता है कि लेखक अपने समय और समाज के विभिन्न वर्गों की साइको से वार्ता कर रहा है। लेखक के जीवन चारो ओर बहुत सी स्थितियां और घटनाएं घूमती हुई नज़र आती हैं तो कई बार लेखक स्वयं साहित्य और समाज के परिक्रमा पथ पर चक्कर लगाता हुआ दिखता है। कहा जाए तो यह आत्मकथा एक साहित्यकार की समयकथा में घुलती-मिलती चली जाती है और अंततः उसमें से अनुभवों, अनुभूतियों, सफलताओं- विफलताओं, जय-पराजय और संवेदनाओं का एक गाढ़ा सा आसव निकलता है। लेखक ने अपने जीवन की घटनाओं और संघर्षों के ताने-बाने से एक ऐसी चादर बुनी है जिसे पाठक बड़ी गंभीरता से ओढ़ना -बिछाना और सहेजना चाहेगा।
‘क्या हाल सुनावाँ’ नरेन्द्र मोहन की आत्मकथा की दूसरी कड़ी है और संभवतः पहली कड़ी ‘कमबख्त निंदर’ का शिखर है। ऐसा इसलिए कहा जा सकता है कि लेखक जिस तरह छोटी-छोटी घटनाओं, वृत्तांतों और साधारण यादों को विमर्श में बदल देता है, वह अन्यत्र सहज उपलब्ध नहीं हो सकता। सामाजिक सरोकार उसकी पीड़ा और विषाद की जड़ में हैं तो अपने निजी संघर्ष और अनुभूतियां सामाजिक और साहित्यिक विमर्श। बंटवारे और विस्थापन का दर्द, विश्वविद्यालयी उठापटक, रजतपट की चकाचैंध में पकड़ खोते रंगमंच, राजनीतिक लाभ-हानि के चलते अभिव्यक्ति की स्वंतंत्रता पर लगाए गए सरकारी पहरे, सृजन की प्रसव पीड़ा और दैहिक कमजोरियां किसी एक लेखक की अपनी समस्या या मानसिकता की उपज नहीं, यह तो देश और काल की पीड़ा है। यह वैयक्तिक हो ही नहीं सकती। यह बात अलग है कि इसको अंतरतम तक भोगने वाला एक संवेदनशील लेखक ही हो सकता है। होने को और लोग भी हो सकते हैं, पर वे कह नहीं सकते, बस लेखक के स्वर में स्वर मिला सकते हैैं।
सच कहा जाए तो यह आत्मकथा देश और काल के पृष्ठ दर पृष्ठ पर अनगिन प्रश्नवाचक चिह्न लगाती हुई आगे बढ़ती है। वे प्रश्न बंटवारे, विस्थापन, साहित्यिक जीवन और देश तथा समाज के विभिन्न चरित्रों पर हो सकते हैं। उदाहरणार्थ, लेखक के नाटक ‘मि0 जिन्ना’ की अंतर्कथा और नरेन्द्र मोहन के संघर्ष को ही ले लें। एक सामान्य मान्यता के तहत देश के बंटवारे के लिए अकेले जिन्ना को जिम्मेदार मानकर कुछ राजनीतिक दल या बुद्धिजीवी अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं और स्वयं पाक-साफ बन जाते हैं। इस ओढ़े हुए तथ्य के विरुद्ध ‘मि0 जिन्ना’ नाटक के लेखक का शोध और बहुफलकीय विश्लेषण सरकार तथा कुछ अन्य लोगों को गवारा नहीं होता और नाटक का मंचन प्रतिबंधित कर दिया जाता है। यह समस्या अकेले इस लेखक की नहीं हो सकती। यह तो समय, समाज और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न है और वह अपनी आत्मकथा में इसे विमर्श का रूप देने में काफी हद तक सफल रहता है।
कुल 15 उपशीर्षकों में बँटी यह आत्मकथा जीवन को सिलसिलेवार व्यक्त करने का उपक्रम नहीं है, इसमें जीवन के चुनिंदा प्रकरणों को व्याख्यायित करने का प्रयास है। लेखक ऊँचे प्लेटफार्म पर खड़े होकर देखने के बजाय अतीत को एक सामान्य धरातल से देखता है और उसे मुख्यतः विकल कर देने वाले प्रसंग दिखते हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि इसमें सतत विलाप, किस्मत और समाज से शिकायतों का अंबार या नकारात्मकता का शब्दजाल है। हकीकत तो यह है कि लेखक किसी भी घटना को इस दृष्टिकोण से न देखता है और न परोसता है। वह तो अपने लेखकीय जीवन के आंतरिक और बाहरी संघर्षों को इस आत्मकथा का पाथेय बनाता है।
कथ्य के आधार पर इस पुस्तक को दो भागोें में रखा जा सकता है। इसका एक बड़ा हिस्सा एक कवि, नाटककार की रचनायात्रा, तज्जन्य कठिनाइयों, तमाम कवियों-लेखकों से साहित्य के दोस्ताना विमर्श एवं साहित्यिक यात्राओं के खाते में है तो दूसरा हिस्सा स्वास्थ्यगत और पारिवारिक स्थितियों और समस्याओं का है जो कम स्पेस पाता है। नरेंद्र मोहन की अपने बचपन के शहर लाहौर और रावी नदी को भूल नहीं पाते और उनकी मानसिक आवाजाही लगातार बनी रहती है। उन्हें जम्मू में तवी नदी देखकर रावी याद आती है और एक नदी उन्हें दूसरी नदी तक ले जाती है। बार-बार अतीत में वापस जाना और बचपन की धरती को तलाशना उनकी प्रकृति बन गई है, लेकिन वे अपने अतीत को बहुत संवेदनशील तरीके से जीते हैं। नास्टैल्जिया होते हुए भी इसे ‘नास्टैल्जिया’ कहकर उपेक्षित नहीं किया जा सकता है। मानसिक यात्रा के अलावा अवसर मिलते ही वे पाकिस्तान यात्रा का लोभ संवरण नहीं कर पाते और अपनी रावी को निगाहों में एक बार पुनः उतारने वे लाहौर पहुंच जाते हैं। उनका लाहौर की यात्रा करना एक व्यक्ति या लेखक की यात्रा नहीं है, अपितु यह उन सभी लोगों की यात्रा है जो विस्थापन का दर्द जानते हैं। बंटवारा एक ऐसी त्रासदी थी जिससे उबर पाना एक व्यक्ति तो क्या, अभी तक दोनों मुल्कों के लिए भी संभव नहीं हो पाया है।
लेखक ने विस्थापन के दर्द के साथ देश में अपने लिए जमीन तो तैयार कर ली, उस जमीन पर उसके पाँव मजबूती से टिक भी गए; लेकिन कोई न कोई उसे जन्मस्थान की ओर जरूर खींचता रहता है। इसी लिए जब ‘मि0 जिन्ना’ नाटक का प्रकाशन और मंचन पाकिस्तान में होता है तो उसे बहुत सुकून महसूस होता है। दूसरी ओर जब राजनीतिक पूर्वाग्रहों और गलत इतिहास की अधकचरा जानकारी के चलते अपने ही देश में नाटक ‘मि0 जिन्ना’ का मंचन ऐन वक्त पर प्रतिबंधित हो जाता है तो बहुतेरे प्रश्न और बहुतेरे दर्द उमड़ने-घुमड़ने लगते हैं। लेखक की प्रवृत्ति रही है कि वह चुनौतीपूर्ण विषयों को ही अपनी कलम की धार के नीचे लेता रहा है। मोहम्मद अली जिन्ना निश्चित रूप से बंटवारे के प्रमुख सूत्रधार रहे हैं, किंतु यह कह देना कि इकलौते कारण वही थे, इतिहास और समाज से पलायन है। इसके अतिरिक्त उस मानसिकता का विश्लेषण जिसके कारण कोई बंटवारे की विषैली मानसिकता का जनक हो जाए, अपने आप में कम साहसिक कदम नहीं है। उदारता की लाख अच्छाइयों के बावजूद संभवतः अभी हम इतने परिपक्व और नवोन्मेषी नहीं हो पाए की निर्धारित कथनों के विरुद्ध दूर तक जाकर कुछ नया सोच पाएं। और शायद यही कारण है कि सिगमंड फ्रायड इस देश में मान्यता के लिए संघर्ष करते हैं।
रंगमंच की उपयोगिता, स्थिति और भविष्य को लेकर नरेन्द्र मोहन कहीं चिंतित तो कहीं सतर्क दिखते हैं। इसमें संदेह नहीं कि रजतपट के आगमन से रंगमंच की लोकप्रियता और दर्शनीयता कम हुई है। अब तो ऐसे भी लोग मिल जाएंगे जिन्हें यह भी पता नहीं कि रंगमंच क्या होता है। साहित्य में नाटककार कम रह गए हैं और अच्छे नाटक कम लिखे जा रहे हैं। जिस प्रकार छिछले हास्य कवियों ने काव्यमंच को उपहास्य और हल्का बना दिया है, उसी प्रकार प्रहसनकारों ने रंगमंच की छीछालेदर की है। लेकिन यह पूरा सच नहीं है। गंभीर साहित्य और गंभीर संगीत कालजयी होते हैं और कालातीत भी। पूरी आत्मकथा पढ़ने के बाद यह आश्वस्ति मिलती है कि रंगमंच के लिए काम हो रहा है। अच्छे नाटककार, निर्देशक और चरित्र अभिनेता अपनी पूरी जिजीविषा से लगे हुए हैं और पूर्ण समर्पण से काम कर रहे हैं। लेखक अपने अनेक नाटकों के मंचन और पूर्वाभ्यास का सशक्त विवरण देता है।
‘मि0 जिन्ना’ ही नहीं, वे अपने अन्य कई नाटकों की रचना प्रक्रिया, उनपर किए गए शोध की अंतर्कथा सुनाते हुए चलते हंैं जिनमें ’अभंगगाथा’ और ‘सींगधारी’ उल्लेखनीय है। मंटो की जीवनी पर साहसिक शोध और लेखन की गाथा नरेन्द्र मोहन की चुनौतियां स्वीकारने की अभिव्यक्ति है। हाँ, एक बार जब नाटककार अपने लिखे नाटक को मंचित होते देखता है तो उसे अपार संतोष मिलता है और लगता है कि उसके लिखे शब्दों और संवादों में नए रंग उभर कर आ रहे हैं। यही दशा किसी कवि को अपने गीतों को लयबद्ध होते देखकर होती है। नरेन्द्र मोहन इस सुख को बार-बार दिखते हैं किंतु उतना ही दुख भी महसूस करते हैं जब ‘मि0 जिन्ना’ पर मंचन के ऐन पहले प्रतिबंध लग जाता है और दूसरी बार स्वास्थ्यगत कारणों से औरंगाबाद से ‘मलिक अंबर’ को छोड़कर।
लेखक अपने निजी पलों को भी बड़ी शिद्दत से महसूस करता है। दरअसल, इस आत्मकथा में दर्शन, रहस्यवाद (मिस्टीसिज्म), अध्यात्म, मनोविज्ञान और साहित्य का अजीब सा मिश्रण दिखता है। पत्नी की मृत्यु का वर्णन एकदम भावुकता से उठकर एक अनजाने से लोक की ओर चल देता है। इसमें संदेह नहीं कि नरेन्द्र मोहन अपनी कविताओं में एक अलग तरह का सूफीज्म और लौकिक प्रवाह लेकर चलते हैं। यही प्रवाह इस आत्मकथा में व्यापक रूप से दृष्टिगत होता है।
पूरी आत्मकथा एक जीवन दर्शन लेकर चलती है। यत्र तत्र वे इसमें अपने अनुभवों की पाक सारवाक्य छोड़ते चलते हैं और कहा जाए तो स्वयं के मैक्ज़िम्स तैयार करते हैं। प्राप्तियों और अनुभूतियों से उपजे वाक्यों को एक जगह समेट पाना असंभव है। बार-बार वे पाठक को ठहरने और सोचने पर मजबूर करते हैं। आत्मालोचन के लिए बार-बार जगह बनाते हैं और कुछ न कुछ कह जाते हंैं। यह भी एक सर्वमान्य तथ्य है कि आत्मकथा लेखक अपने कमजोर पक्षों को प्रायः छिपा जाता है या उपेक्षित कर देता है। निजी जीवन से जुड़ी यादों को जब वह लिपिबद्ध करता है तो अधिकांश आलोचक और पाठक उसके अपने प्रेम प्रसंगों को को तलाशता है। अज्ञेय और हरिवंश राय बच्चन अपनी जीवनियों में ऐसे प्रसंगों को छिपाते नहीं। वहीं अनेक आत्मकथाओं में निजी संबंधों और कमजोरियों को छिपाया गया है। वैसे, जब लेखक अपनी वैयक्तिकता को सामाजिक संपत्ति के रूप में परिवर्तित कर देता है तो उसके इन संबंधों की तलाश बेजा ही है। क्या हाल सुनावाँ में लेखक ने न तो ऐसे प्रसंगों को अतिरंजना या ऊँचाई प्रदान की है और न छिपाया ही है।
लेखक का अपना अलग नजरिया होता है। वह अपने मित्रों और समाज को सकारात्मक दृष्टि से देखता है। बढ़ती हिंसा और राजनीतिक कटुता पर उसे चिंता होती है और होनी भी चाहिए। ‘‘इधर मैं कविताएं लिखता रहा, उधर हत्याएं होती रहीं।’’पंजाब के आतंकवाद और चैरासी के दंगों के परिप्रेक्ष्य में लिखित यह वाक्य एक ही बार में बहुत सी विडम्बनाओं को उभार देता है। लेखक कहीं से मुगालते में नहीं है। आत्मकथा लिखते समय वह बहुत गंभीर है और कहता है -‘‘ देखा जाए तो आत्मकथा आत्म में बिंधे लोगों, प्रसंगों और घटनाओं का, अनुभवों, यात्राओं और स्मृतियों का एक सिलसिला है, मगर यह सिलसिला सीधा और सपाट नहीं है।.......आत्म में गहरे गोते लगाने वाला ही आत्म के विस्तार को छू सकता है।’’
नरेन्द्र मोहन अपने इस वक्तव्य पर व्यावहारिक रूप से खरे उतरते हैं। दरअसल, वे भोक्ता और दर्शक का भाव एक साथ लेकर चलते हैं। आत्मकथा के अनेक पृष्ठों पर उनकी अपनी और कुछ अन्य कवि मित्रों की कविताएं गंभीर उपस्थिति दर्ज कराती रहती हैं और लेखक को इस भाव से पकड़े रहती हैं कि तुम मूलतः कवि हो और कविता को मत छोड़ो।
क्या हाल सुनावाँ उन पाठकों या आलोचकों के लिए निराशाजनक है जो चटक साहित्य पढ़ने में विश्वास रखते हैं। स्वाद की तलाश वाले पाठकों के लिए यह लोहे के चने चबाने से कम कतई नहीं है। इसमें साहित्य, समाज, राजनीति, मनुष्य के ओछेपन और गैंगबाजी पर गंभीर किंतु सत्य टिप्पणियां हैं। आसान नहीं है इसके पृष्ठों को पलटते जाना। इसके चरित्र सोचने पर मजबूर करते हैं। भाषा की बात की जाए तो गंभीर थीम के लिए सर्वथा उपयोगी है किंतु कहीं- कहीं ज्यादा ही भारी हो जाती है। अंगरेजी शब्दों को इच्छानुसार ढाल लिया गया है, जो कहीं अच्छे लगते हैं तो कहीं खटकते भी हैं। वस्तुतः लेखक ने आत्मकथा के बहाने अपने देश और काल का गहन सर्वेक्षण किया है और स्व को किसी लेखक के रूप में उंडे़ल दिया है। पुस्तक का भौतिक रूप-रंग आकर्षक है धीरे-धीरे ही सही, यह स्वयं को पढ़वाकर ही दम लेती है बशर्ते आप जीवन में गंभीरता को महत्त्व देते हों।

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