आख़िर कब तक और क्यों ढोएँ हम?


हमारी अपनी ही आबादी 134 करोड़ पार कर चुकी है. यह रुकने का नाम नहीं ले रही है. घटने की तो बात ही बेमानी है.

यह बढ़ती आबादी हमारे लिए एक बड़ी मुसीबत है. वे लोग जो आबादी को ह्यूमन रिसोर्स और इस नाते से लायबिलिटी के बजाय असेट मानने की दृष्टि अपनाने की बात करते हैं, जब इस ह्यूमन रिसोर्स के यूटिलाइज़ेशन की बात आती है तो केवल कुछ सिद्धांत बघारने के अलावा कुछ और कर नहीं पाते. दुनिया जानती है कि ये सिद्धांत कागद की लेखी के अलावा कुछ और हैं नहीं और कागद के लेखी से कुछ होने वाला नहीं है.


ये कागद की लेखी वैसे ही है जैसे किसी भी सरकार के आँकड़े. जिनका ज़मीनी हक़ीक़त से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं होता. आँखिन की देखी के पैमान पर इन्हें कसा जाए तो ये प्रायः झूठ और उलझनों के पुलिंदे साबित होते हैं.

इस बढ़ती आबादी से पैदा होने वाली उलझनों की हक़ीक़त ये है कि देश में बहुत बड़ी आबादी या तो बेरोज़गारी की शिकार है या फिर अपनी काबिलीयत से कमतर मज़दूरी पर कमतर रोज़गार के लिए मजबूर. इस आबादी में हम और आबादी जोड़ते जा रहे हैं. नए-नए शरणार्थियों का आयात कर रहे हैं. दुनिया भर के टुच्चे नियम-क़ानून और बेसिर-पैर का हवाला देते हुए.

ये हवाले देखें तो ऐसा लगता है गोया वसुधैव कुटुंबकम का ठेका हमारे बुद्धिजीवियों और कुछ राजनेताओं ने ही ले रखा है. हक़ीक़त ये है कि इनका वसुधैव कुटंबकम भी वह सूत्र नहीं है जो महोपनिषद में आया है, यह तो इसका वैसे ही इस्तेमाल कर रहे हैं जैसे पंचतंत्र के सियार ने बैल पर किया.

देश और देश की जनता से इनकी कितनी सहानुभूति है, इसका अंदाज़ा इसी बात से लगा सकते हैं कि देश में जाति-धर्म की सारी आग उनकी लगाई हुई है जो ख़ुद सेकुलरिज़्म का सबसे बड़ा ठेकेदार बताते नहीं अघाते. ये सिद्धांत भी इनके लिए अपना वोटबैंक बढ़ाने के अलावा कुछ नहीं है.

जिन लोगों की भावनाएँ भड़काकर ये बंग्लादेशियों और रोहिंग्याओं को यहाँ बसाने के लिए मरे जाते हैं, हक़ीक़त ये है कि ये अवैध प्रवासी उनकी ही रोज़ी-रोटी के लिए ख़तरा बनते हैं. उनके ही लिए रोज़गार का संकट पैदा करते हैं. क्योंकि दूसरे देश से अवैध रूप से आकर बसे आदमी के सामने सबसे पहला संकट अपने लिए रोटी के जुगाड़ का होता है. ऐसे में उसे अपने श्रम का जो भी मूल्य मिलता है, वह उसी पर काम करने के लिए राज़ी हो जाता है.

इसका भरपूर फ़ायदा उठाता है क्रोनी कैपिटलिज़्म और उसके इस फ़ायदे के लिए मानवाधिकारों के चैंपियनशिप की बहानेबाज़ी करते हैं हमारे उदारचेता लोग. इनकी सारी उदारता का कुल लाभ किसे मिलता है, इस पर हम ग़ौर ही नहीं कर पाते.

एक बार इस पर ज़रा ग़ौर से देखिए. ये जो बांग्लादेश और म्यांमार से आए हुए अवैध प्रवासी हैं, जो किसी भी हाल में जीने के लिए राजी हैं, ये यहाँ आकर करते क्या हैं? या तो असंगठित क्षेत्र के वे काम जिनमें हमारे देश की बहुत बड़ी ग़रीब आबादी लगी हुई है. या फिर चोरी-डकैती. दोनों ही स्थितियों में शिकार हमारा ग़रीब और मध्यवर्ग ही होता है. क्योंकि चोरी डकैती भी कोई उनके घर नहीं कर सकता जो सात पहरों में रहते हैं.

ये सेकुलरिज़्म और सामाजिक न्याय के बड़े-बड़े दावे करने वाले बुद्धिजीवी और नेता धर्म और जाति के आधार पर ही इन्हें यहाँ अपना पाहुन बनाने के लिए जनमत तैयार करते हैं. जबकि हक़ीक़त ये है कि ये अपने लिए सिर्फ़ वोटबैंक तैयार करते हैं और उसके मार्फ़त बड़े-बड़े पूँजीपतियों के लिए सस्ते, लगभग मुफ़्त के मज़दूर.

इनसे पूछा जाना चाहिए कि जिनके रोज़गार ये खाते हैं और जिनके पेट पर ये लात मारते हैं, वे कौन हैं. पहले से भारत में रह रहे हिंदू-मुसलमान और ईसाइयों के ग़रीब तबके. आप चाहे पिछड़े कह लें या दलित. जब स्वार्थों के टकराव की बात आती है तो ये हिंदू को मुसलमान से, दलित को सवर्ण से और पिछड़े को दलित से भिड़ाकर चैन की बंशी बजाते हैं.

अपने लिए वोटबैंक साधते हैं और क्रोनी कैपिटलिज़्म के लिए मुफ़्त के मज़दूर तैयार कर देते हैं. बड़े-बड़े मनीषियों के सारे सिद्धांत एक किनारे चले जाते हैं. आप जब इन पर सवाल उठाते हैं तो प्रतिक्रियावादी, सांप्रदायिक, संशोधनवादी और पिछड़ी सोच वाले करार दे दिए जाते हैं. चूँकि आपके ज़मीनी सवालों का इनके पास कोई हल नहीं है, लिहाज़ा इकलौता रास्ता यही है कि आपको भरमाया जाए. बेवजह नीचा दिखाया जाए. उनका अपराध आपके सिर थोपा जाए और अंततः कन्नी काटी जाए.

आख़िर कब तक? और क्यों ढोएँ हम?

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