नरेश दाधीच
जयपुर
पीस फाउण्डेशन के तत्वावधान में आज मानसरोवर स्थित उनके संगोष्ठी कक्ष में डॉ
दुर्गाप्रसाद अग्रवाल की नव प्रकाशित पुस्तक समाज का आज पर चर्चा
गोष्ठी आयोजित की गई. प्रारम्भ में फाउण्डेशन के अध्यक्ष प्रो. नरेश दाधीच ने
पुष्प गुच्छ देकर लेखक का स्वागत किया और
फिर कृतिकार डॉ अग्रवाल ने अपनी पुस्तक के बारे में जानकारी दी. उन्होंने बताया कि
मूलत: एक अपराह्न दैनिक के स्तम्भ के रूप में लिखे गए ये आलेख समकालीन देशी-विदेशी
समाज की एक छवि प्रस्तुत करते हैं. डॉ अग्रवाल ने कहा कि ये लेख विधाओं की सीमाओं
के परे जाते हैं और बहुत सहज अंदाज़ में हमारे समय के महत्वपूर्ण सवालों से रू-ब-रू
कराने का प्रयास करते हैं. कृति चर्चा की
शुरुआत की जाने-माने पत्रकार श्री राजेंद्र बोड़ा ने. उनका कहना था कि यह किताब
बेहद रोचक है और हल्के फुल्के अंदाज़ में बहुत सारी बातें कह जाती हैं. क्योंकि ये
लेख एक अखबार के लिए लिखे गए हैं इसलिए
इनमें अखबार की ही तर्ज़ पर इंफोटेनमेण्ट है यानि सूचनाएं भी हैं और मनोरंजन भी.

श्री
बोड़ा की बात को आगे बढ़ाया वरिष्ठ कवि श्री नंद भारद्वाज ने. उन्होंने कहा कि आकार
इन लेखों की बहुत बड़ी सीमा है. विषय जैसे ही खुलने लगता है, लेख समाप्त हो
जाता है. लेकिन लेखक के स्टैण्ड की बात पर उनका कहना था कि मूल्यों के स्तर पर
लेखक लोकतांत्रिक स्टैण्ड लेता है. वह अपनी बात कहता है और फैसला पाठक पर छोड़ देता
है. वह भले ही कोई निर्णय न दे, विचार को ज़रूर प्रेरित करता है. श्री भारद्वाज ने इस किताब की दो ख़ास बातों को
रेखांकित किया. एक तो यह कि लेखक संस्कृति की अच्छाइयों को उभारता है, और दूसरी यह
कि वह बदलावों, विशेष रूप से तकनीक में आ रहे बदलावों के प्रति सहानुभूति
पूर्ण नज़रिया रखता है.
वरिष्ठ रचनाकार और साहित्यिक त्रैमासिकी ‘अक्सर’के सम्पादक डॉ
हेतु भारद्वाज का कहना था कि यह किताब
अखबार और लेखक के रिश्तों पर विचार करने की ज़रूरत महसूस कराती है. उनका सवाल था कि
क्या अख़बार लेखक काइस्तेमाल करता है, और अगर लेखक कोई स्टैण्ड लेता है तो अखबार का रुख क्या
होगा. उन्होंने लेखक से चाहा कि वो कभी ऐसा भी कुछ लिखकर देखे जो अखबार को
स्वीकार्य न हो. चर्चा में सहभागिता करते हुए कथाकार और विमर्शकार हरिराम मीणा ने
कहा कि हर कॉलम की अपनी शब्द सीमा होती है और लेखक को उस सीमा के भीतर रहना होता
है. उन्होंने कहा कि इस किताब के लेख बहुत
रोचक और समसामयिक हैं. उनका यह भी मत था कि लेखक कोई उपदेशक नहीं होता कि वह अपने
पाठक को रास्ता बता दे. अंतिम सत्य उसके पास भी नहीं होता है. पहले उठे एक मुद्दे
के संदर्भ में उन्होंने कहा कि लेखक जिस समाज को जानता है, उसी के बारे
में तो लिखता है. किसी भी लेखक से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह समाज के उन
हिस्सों के बारे में भी लिखेगा जिन्हें वो जानता ही नहीं है. ‘साहित्य
समर्था’की सम्पादक कथाकार नीलिमा टिक्कू का कहना था कि इस किताब के लेख ज्वल्लंत
समस्याओं को उठाते और पाठक को उद्वेलित करते हैं.‘न्यूज़ टुडै’के पूर्व सम्पादकीय
प्रभारी, जिनके कार्यकाल में ये आलेख प्रकाशित हुए थे, श्री अभिषेक
सिंघल का कहना था कि अखबारी लेखन और साहित्य में स्वभावत: एक फासला होता है, और फिर अगर वह
अखबार सांध्यकालीन हो तो यह फासला और बढ़ जाता है क्योंकि इसका पाठक वर्ग भिन्न
होता है. उन्होंने इस कॉलम के लिए अपनी मूल योजना से परिचित कराते हुए बताया कि हम
चाहते थे कि समाज के यथार्थ से आंख न
मूंदी जाए, लेकिन उसे सहज शैली और सरल भाषा में प्रस्तुत किया जाए.
सिंघल ने इस बात पर प्रसन्नता ज़ाहिर की कि उनके अखबार में छपे ये लेख अब पुस्तकाकार उपलब्ध हैं और
इन्हें पढ़ा और सराहा जा रहा है. चर्चा का समापन करते हुए राजनीति विज्ञानी डॉ नरेश
दाधीच ने कहा कि इस किताब के लेखों की भाषा नए प्रकार की है और वह उत्तर आधुनिक
है. यह भाषा विषयों द्वारा निर्मित सीमाओं का अतिक्रमण करती है और कभी-कभी यह आभास
देती है जैसे यह हरिशंकर परसाई की भाषा का
उत्तर आधुनिक संस्करण है. एक तरह से तो इस किताब की भाषा आने वाले समय की हिंदी
कैसी हो, इसका मानक रूप प्रस्तुत करती है. भाषा की सरसता और लचीलेपन के अलावा उन्होंने
विषयों के वैविध्य की भी सराहना करते हुए और विशेष रूप से किताब के अंतिम लेख का
विस्तृत हवाला देते हुए यह शिकायत की कि लेखक पूरी घटना बता कर भी उसका अंत नहीं
बताता है.
इसी बात के जवाब से अपनी टिप्पणी की
शुरुआत करते हुए लेखक डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल ने कहा कि यह शिल्प उन्होंने आज की
कहानी से लिया है जो प्राय: ओपन एण्डेड होती है और जहां कथाकार पाठक से अपेक्षा
करता है कि वह अंत की कल्पना खुद कर लेगा. उन्होंने विभिन्न वक्ताओं द्वारा उठाए
गए मुद्दों पर भी अपनी प्रतिक्रिया दी. उनका कहना था कि अखबार ने कभी उनकी
अभिव्यक्ति पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया. इस्तेमाल वाली बात पर अपने चिर परिचित
हल्के फुल्के अंदाज़ में उन्होंने कहा कि इस्तेमाल तो सभी एक दूसरे का करते हैं.
अगर अखबार लेखक का इस्तेमाल करता है तो लेखक भी अपनी बात कहने के मंच के तौर पर
अखबार का इस्तेमाल करता है.
इस संगोष्ठी में जयपुर के अनेक प्रमुख साहित्यकार-पत्रकार जैसे फारूक आफरीदी, हरीश
करमचंदानी, गोविंद माथुर, अनिल चौरसिया, एस भाग्यम
शर्मा, रेखा गुप्ता, स्मिता विमल, रंजना त्रिखा, प्रो.
सुल्ताना, कल्याण प्रसाद वर्मा, अशोक चतुर्वेदी, सम्पत सरल, बनज कुमार बनज, माया मृग, चंद्रभानु
भारद्वाज, हनु रोज, और अनेक सुधी साहित्य रसिक उपस्थित थे.