To Ghrishneshwar

                                                    घृष्णेश्वर  की ओर:

                                                                   -हरिशंकर राढ़ी 


हमारा अगला गंतव्य घृष्णेश्वर  ज्योतिर्लिंग और अजंता एलोरा की गुफाएँ थीं। घृष्णेश्वर  ज्योतिर्लिंग और एलोरा की गुफाएं महाराष्ट्र  के औरंगाबाद जिले में हैं और दोनों ही एक दूसरे के बहुत पास पास हैं। हमारे कार्यक्रम में पहले घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग का  दर्शन  था और उसके बाद एलोरा। शिरडी  से वहां जाने के लिए औरंगाबाद की बस पकड़नी थी। यद्यपि हम लोग एक जीप भर की सवारी थे किंतु अनजान सी जगह पर जाते समय प्रायः मैं सरकारी बसों को तरजीह देता हूं। शिरडी  से औरंगाबाद लगभग डेढ़ सौ किमी है और यात्रा में पांच घंटे लग जाते हैं।लेकिन , शिरडी  से औरंगाबाद के लिए बसों की कमी नहीं है।
 घृष्णेश्वरमंदिर का शिखर :     छाया : हरिशंकर राढ़ी  


औरंगाबाद हम लोग लगभग एक बजे अपराह्न में पहुंचे  थे। शिरडी  की तुलना में यहां भाषा  में कुछ दिक्कतें आती हैं, पर ज्यादा नहीं। औरंगाबाद से घृष्णेश्वर  अधिक दूर नहीं है। लगभग 30 किमी होगा, परंतु यहां के लिए बसें उपलब्ध नहीं थीं। कुछ बसें उधर से होकर जाती हैं किंतु लंबी दूरी के ड्राइवर - कंडक्टर नजदीक की सवारी बिठाने को राजी नहीं थे। यदि वे राजी हो भी जाते तो उनमें घुसना युद्ध जीतने से कम नहीं था। और रह गए टैक्सीवाले तो उनकी तो बात मत पूछिए। इतनी सी दूरी के लिए  वे छह सौ रूपये से कम पर हिलने को तैयार नहीं। अंततः एक टैक्सीवाला बीच और पीछे की पूरी सीटें ढाई सौ में देने को तैयार हो गया और हम लोग औरंगाबाद के ऐतिहासिक शहर  से बाहर निकलते हुए लगभग आधे घंटे में घृष्णेश्वर  ज्योतिर्लिंग पहुंच चुके थे।

घृष्णेश्वरमंदिर के सामने प्रसाद विक्रेता  :     छाया : हरिशंकर राढ़ी 
घृष्णेश्वर  का स्थान द्वादश  ज्योतिर्लिंग स्त्रोत में अंतिम माना गया है- घृष्णेशं  शिवालये। यह एक अति प्राचीन ज्योतिर्लिंग है। मंदिर भी कोई बहुत विशाल या भव्य नहीं है। दुर्गम तो नहीं कहा जा सकता किंतु अंदरूनी हिस्से में होने के कारण लोगों की पहुंच बहुत कम है। या तो वहां किसी अन्य कार्य से पहुंचे हुए लोग दर्शन  के लिए जाते हैं या वे जो द्वादश ज्योतिर्लिंग की यात्रा पर हैं। हां, स्थानीय लोग अच्छी संख्या में पहुंचते रहते हैं।

घृष्णेश्वरमंदिर के सामने  परिसर  :     छाया : हरिशंकर राढ़ी 
जैसा कि पहले ही बताया कि यह अभी तक बसावट और व्यापार की दृष्टि  से बहुत सघन और मौद्रिक मानसिकता का नहीं हो पाया है, सो आप केवल धार्मिक अनुभूति ही बटोर सकते हैं। सबसे अच्छी बात यह है कि वहां पहुंचने पर आपको कैच करने की मुद्रा में पंडे - पुजारियों का हमला नहीं होता। न तो होटल वालों की मारामारी और न दूकानदारों की। हाँ, मंदिर प्रवेश  के मुख्य द्वार पर पहुँचने  के बाद फूल माला  और प्रसाद  बेचने वालों का इतना तो हक बनता है कि वे आपको अपनी दूकार पर बुलाकर दस बीस रुपए की कमाई कर लें।

घृष्णेश्वरमंदिर का प्रवेशद्वार      छाया : हरिशंकर राढ़ी 
घृष्णेश्वर मंदिर बहुत विशाल  या भव्य भले ही न हो, किंतु इसकी महत्ता वहां पहुंचने वाले दर्शनार्थी  को  महसूस हो जाती है। छोटा सा परिसर है जहां आपको एक विचित्र सी प्राचीनता एवं शांति  का आभास होगा। अन्य ज्योतिर्लिंगों की भांति घृष्णेश्वर  ज्योतिर्लिंग के उद्भव की भी एक कथा है। किसी समय यह वरुल या मराठी में वेरुल गांव था जो येलगंगा नदी के किनारे बसा था। यहां का राजा येल था। एक बार वह शिकार  खेलने गया और ऋषियों  - मुनियों के आश्रमों में रह रहे पशुओं  का शिकार कर लिया। यह देख वे ऋषि - मुनि क्रोधित हो गए और उन्होंने राजा येल को श्राप दे दिया कि उसका शरीर कीड़े - मकोड़ों से भर जाए। राजा वहां से भूखा -प्यासा भटकने लगा। अंतत: उसे घोड़े की खुर से बने एक गड्ढे में थोड़ा सा जल मिला। उसे पीने के बाद आश्चर्यजनक  रूप से वह कीड़े-मकोड़ों से मुक्ति पा गया और वहीं तपस्या करने लगा। अंत में उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने दर्शन दिया और तीर्थ स्थल सहित एक सरोवर का निर्माण किया जो बाद में चलकर शिवालय के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

घृष्णेश्वरमंदिर के पास राजमार्ग  :     छाया : हरिशंकर राढ़ी 
किंतु घृष्णेश्वर  के यहां स्थापित होने की यह अंतिम कथा नहीं है। बहुत सी अन्य कथाएं भी हैं। एक अन्य कथा के अनुसार देवपर्वत पर रहने वाला सुधर्मा शिव  का अनन्य भक्त था। उसका विवाह सुदेहा नामक सुंदर एवं धर्मपरायण कन्या के साथ हुआ था। विवाह के बहुत दिनों बाद तक सुदेहा - सुधर्मा के कोई संतान नहीं हुई तो लोग ताने मारने लगे। सुदेहा ने किसी प्रकार अपने पति को समझा-बुझा कर अपनी बहन घुष्मा  से विवाह करा दिया और यह वचन दिया कि वह कभी घुष्मा  से ईर्ष्या  नहीं करेगी। कुछ दिनों बाद घुष्मा  को पुत्र की प्राप्ति हुई तो सुदेहा के मन में जलन ने स्थान बना लिया। एक रात उसने घुष्मा  के पुत्र का वध करके सरोवर में फेंक दिया। घुष्मा ने उस दिन भी शिव  की भक्ति नहीं छोड़ी और नित्य की भांति सरोवर पर जाकर  पूजा अर्चना की। पूजा के बाद उसने पीछे मुड़कर देखा तो उसका पुत्र जीवित था और मुस्करा रहा था। जब क्रोध में आकर शिव  सुदेहा का वध करने चले तो घुष्मा  ने अनुनय - विनय करके उन्हें प्रसन्न कर लिया और सुदेहा का वध करने से रोक लिया तथा विनती की कि वे वहीं शिवलिंग के रूप में विराजें। शिव  ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और ज्योतिर्लिंग के रूप में विराज गए। आज उन्हीं की घृष्णेश्वर  या घुष्म ईश्वर  के रूप में पूजा होती है।

मंदिर का वास्तु: मंदिर की संरचना पर स्थानीय स्थापत्य कला का पूरा प्रभाव देखा जा सकता है। गर्भगृह और मंडप दोनों ही उत्कृष्ट  कारीगरी के नमूने हैं और बसाल्ट पत्थरों को काटकर बनाए गए हैं। शिखर भी सुंदरतापूर्वक बनाया गया है जिसपर ज्यामितीय आकृतियां बनी हैं। मंदिर का पुररुद्धार इंदौर की धर्मपारायाणा रानी अहल्याबाई होल्कर (1765.1795 ) ने कराया है। वे अनेक ज्योतिर्लिंगों के उद्धारक के रूप में प्रसिद्ध हैं।

घृष्णेश्वरमंदिर के लिए यहाँ उतरते हैं     छाया : हरिशंकर राढ़ी 
मंदिर में प्रवेश  हेतु कुछ नियम हैं। पुरुष दर्शनार्थी  केवल अधोवस्त्रों में ही मंदिर में प्रवेश  कर सकते हैं। उन्हें कुर्ता , कमीज, बनियान और बेल्ट उतारना पड़ता है। यह नियम दक्षिण के बहुत से मंदिरों में लागू होता है, त्रिवेंद्रम के स्वामी पद्मनाभ मंदिर में तो पैंट -पाजामा भी स्वीकृत नहीं है। वहां धोती पहनकर ही दर्शन  हेतु आप जा सकते हैं। घृष्णेश्वर  मंदिर में मुख्यतः दो आरतियां प्रातः छह बजे एवं रात्रि के आठ बजे दर्शनीय  होती हैं। सोमवार, प्रदोष  एवं शिवरात्रि पर विशेष भीड़ होती है। रुद्राभिषेक  पूजा के लिए शुल्क  निर्धारित हैं। कोई भक्त अपने नाम पर्ची कटाकर चला आए तो उसके नाम की पूजा कर दी जाती है और प्रसाद उसके पते पर डाक द्वारा भेज दिया जाता है।

घृष्णेश्वर  दर्शन  के पश्चात  अभिषेक  की पर्ची लेकर हम परिसर से बाहर आए। यह सोचते हुए की इस देश  में भ्रमण को कितना महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया होगा कि दर्शन  के बहाने ही सही, लोग कहां -कहां चले आते हैं। अपने आप को भाग्यशाली  मानते हुए हम मंदिर के वास्तु को निहारते रहे। कुछ देर मंदिर के बाहर बिताकर और भगवान शिव को अपने इस स्वरूप के पास बुलाने का आभार ज्योतिलिंग स्त्रोत के शब्दों में  देते  हुए अगले पड़ाव एलोरा की ओर चल पड़े -
इलापुरे रम्यविशालकेऽस्मिन समुल्लसन्तं जगद्वरेण्यम्।
वन्दे महोदारतरस्वभावं, घृष्णेश्वराख्यं  शरणं प्रपद्ये।।


घृष्णेश्वरमंदिर के पास      छाया : हरिशंकर राढ़ी 



Comments

  1. सुन्दर यात्रा वृत्तान्त। स्थान के बारे में पहले से पता होने पर पर्यटन का आनन्द बढ़ जाता है।

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  2. भारत में सनातनियों के मन्दिर में इतनी शर्तें... यह उतारो, वह पहनो..

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  3. घृष्णेश्वर मंदिर का सुन्दर यात्रा चित्रण। .
    दर्शन लाभ के लिए आभार !
    बहुत अच्छा लगा ब्लॉग

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