मैंगो मैन का बनाना रिपब्लिक

इष्ट देव सांकृत्यायन

भारतीय स्त्री को अगर कोई चीज़ सबसे ज़्यादा पसंद है तो वह है सोना. केवल क्रिया ही नहीं, संज्ञा और यहां तक कि विशेषण के रूप में भी. मेरे एक मामाजी तो कहा करते थे कि महिला लोगों का अगर वश चले तो पति को भी बेच कर सोना ख़रीद लें. जहां तक बात पति टाइप लोगों की है, तो वे उनकी सोने की मांग को केवल क्रिया के रूप में ही समझना चाहते हैं. लेकिन वाक़ई सोना कितना ज़रूरी है और आम आदमी के लिए इसकी कितनी अहमियत है, यह बात अब जाकर समझ में आई. तब जब भारत सरकार ने तय कर लिया है कि वह आम आदमी से सोना ख़रीदेगी. पहले तो मुझे लगा कि यार मैं भी आम आदमी हूं और इस लिहाज़ से मुझे भी सोना बेचना चाहिए. जब सरकार ही ख़रीदेगी तो ज़ाहिर है कि अच्छा दाम देगी.

श्रीमती जी से कहा कि सरकार सोना ख़रीदने की बात कर रही है, ऐसा करते हैं कि हम लोग भी कुछ बेच देते हैं. इतना कहना था कि श्रीमती जी फायर हो गईं, ‘आप क्या समझते हैं, आपका पड़े-पड़े सोना सरकार ख़रीदेगी? अगर क्रिया में सोना सरकार को ख़रीदना होता तो उसके लिए उसे जनता से गुहार लगाने की ज़रूरत नहीं पड़ती. इसके लिए उसकी पुलिस ही काफ़ी होती. किसी और डिपाट्मेंट की भी मदद की ज़रूरत नहीं होती.

फिर?’ मैंने एक सच्चे जिज्ञासु पति की तरह पूछा, ‘किस टाइप का सोना सरकार को चाहिए?’

सरकार को गहरी नींद वाला सोना नहीं, मेटल वाला सोना चाहिए.श्रीमती जी ने मेरा ज्ञान बढ़ाया.

अच्छा तो ठीक है, आपके पास तो वह भी है. दे दीजिए’, मैंने आग्रह किया, ‘बेच आते हैं.

अब तो उनका ग़ुस्सा और बढ़ गया. तुरंत सवाल उठ गया
,  अभी तक एक तोला सोना भी ख़ुद ख़रीदकर ले आए हैं, जो ले जाएंगे बेचने?’  

बड़ी मुश्किल है. पता नहीं, बेचने के साथ यह बुनियादी शर्त क्यों लगा दी गई कि चीज़ आपके पास हो भी. यानी कि आप ले आए हों. जो चीज़ आपके पास हो ही नहीं, यानी कि जिस पर आपका मालिकाना हक़ न हो, उसे आप बेच भी नहीं सकते. एक बार तो मुझे लगा कि फिर लोग कैसे कहते हैं कि नेता लोग देश बेच दे रहे हैं. जबकि देश पर उनका कोई मालिकाना हक़ नहीं है. देश पर मालिकाना हक़, सुनते हैं कि 26 जनवरी 1950 के बाद से जनता का हो गया. लेकिन फिर ख़याल आया कि जनता ने तो अपने इस मालिकाना हक़ को कभी स्वीकार किया ही नहीं. वह अपने पूरे मालिकाना हक़ का पावर ऑफ़ एटॉर्नी इन्हीं नेता लोगों को दे देती है, हर पांचवें साल. नेता लोग वह मालिकाना हक़ किसी एक साहब या साहिबा को दे देते हैं और उसके बाद देश की चिंता छोड़ देते हैं. पिछले पैंसठ वर्षों का इतिहास देखा जाए तो 55 वर्ष तो यह पावर ऑफ एटॉर्नी घूम-फिर कर एक कुनबे में ही रही है. बीच-बीच में मन बदलने के लिए कभी-कभी इधर-उधर भी हो आती है, जैसे आम आदमी कभी तीर्थयात्रा या पर्यटन कर आता है. या यूं कहें कि जब-तब ढाबे पर खाना खा आता है. जैसा कि भारत का संविधाननाम की एक किताब में लिखा है, उस पर अगर भरोसा किया जाए तो हर पांचवें साल यह मालिकाना हक़ हम, भारत के लोगही अपने-अपने मनपसंद नेताओं के ज़रिये उस कुनबे को सौंपते रहे हैं और उसके बाद हमारे लोकप्रिय नेतागण अपने जीवन का एकमात्र उद्देश्य उस कुनबे के होनहार को प्रधानमंत्री बनाना घोषित करते रहे हैं. भली ख़ुद होनहार जी की अपनी मंशा ऐसी कुछ भी कभी न रही हो. लब्बोलुआब यही निकलता है कि देश की आम जनता उस एक कुनबे को ही देश का मालिक मानती हैं, बाक़ी जो कुछ कहा जाता है, वह सब सिर्फ़ हल्ला है. बिलकुल वैसे ही जैसे कि लोकतंत्र.
अब ऐसा तो हो नहीं सकता कि प्रधानमंत्री जैसे बड़े आदमी ऐसे ही कोई बात कहें. आख़िर पीएम के कुछ कहने का कोई मतलब तो निकलना चाहिए. हो न हो, यह अलग बात है. जब उन्होंने कहा है तो ज़रूर आम आदमी के पास सोना होगा और उस पर उसका मालिकाना हक़ भी होगा. बड़ी देर तक सोचता रहा तो याद आया कि एक आम आदमी तो उसी कुनबे से जुड़े हुए हैं. वो थोड़े अंग्रेजी में आम आदमी हैं, यानी कॉमन मैन या आप चाहें तो मैंगो मैन भी कह सकते हैं. लेकिन हिंदी में तो वे आम आदमी ही हुए. आम आदमी की हैसियत से ही पिछले दिनों उन्होंने देश को बनाना रिपब्लिक बताया था. हालांकि यह स्पष्ट नहीं किया था कि इसमें कितना बनाना है और कितना रिपब्लिक. वैसे यह बात हम अपने अनुभव से जान चुके हैं कि किसी भी रिपब्लिक में बनाना की क्या अहमियत है और वह किस-किस काम आता है. यह एक ख़ास क़िस्म के बनाना का ही कमाल है कि सबकी आस्था उस एक कुनबे के इर्द-गिर्द ही संकेंद्रित हुई है. बनाना न हो तो जाने कब किसे ईमानदारी का प्रेत लग जाए और वह क्या-क्या साबित कर डाले!

एक सज्जन तो इस बेचारे आम आदमी के ही पीछे पड़ गए थे. ख़ैर, उनके लिए पहले ट्रांस्फर, फिर निलंबन और फिर बर्खास्तगी का बनाना काम आया. सब हो जाने के बाद तब जाकर आस्था के धनी सूबाई महामाननीय ने बताया कि वो तो बेचारे एक मामूली किसान हैं. ऐसा कभी-कभी होता रहता है. अफ़सरशाही में वैसे तो बहुत समझदार लोग हैं, लेकिन कभी-कभी कुछ नासमझ लोग भी चले आते हैं. जिनकी मानसिक डोलायमानता का असर कभी बालू खनने तो कभी ज़मीन पर क़ब्ज़े और कभी मक्खी-मच्छर टाइप लोगों की समयपूर्व परमधाम यात्रा प्रायोजित कर देने पर माननीयों थोड़ा-बहुत माननीयों को भी भुगतना पड़ जाता है. भला हो, जनता के प्रति सेवाभाव के धनी हमारे माननीयों का, जो ऐसे कष्ट को कोई कष्ट ही नहीं मानते.

आप तो जानते ही हैं, भारत एक कृषिप्रधान देश है और इस लिहाज़ से यहां किसान होना बहुत महत्वपूर्ण है. प्रागैतिहासिक काल में तो राजा-महाराजा तक यहां किसान बनते रहे हैं और इसके लिए प्रतीकात्मक रूप से हल चलाते रहे हैं. राजा जनक के बारे में भला कौन नहीं जानता! पौराणिक कथाओं पर मेरी पूरी आस्था है और उनके अनुसार किसानों को सोना ज़मीन में गड़ा हुआ मिलता रहा है. किसान लोग असल में इसीलिए हल चलाते रहे हैं. जब लोग हल चलाते हैं तो इससे कई फ़ायदे होते हैं. ज़मीन में दबा हुआ सोना निकल कर बाहर आ जाता है. अनुभवी किसान लोग उस निकले हुए सोने के छोटे-छोटे टुकड़े करवा डालते हैं और उसे फिरसे ज़मीन में बो देते हैं. उसी ज़मीन में जिस ज़मीन में पहले वे धान, गेहूं, सरसों, आलू टाइप की मामूली चीज़ें बोते रहे हैं. अब धान-गेहूं उगाने वाली ज़मीन में जब सोने के कण बोए जाते हैं तो ज़ाहिर है, उसका लैंडयूज़ तुरंत चेंज हो जाता है.
लैंडयूज़ चेंजियाते ही उस पर एक नए तरह की फ़सल खड़ी हो जाती है. देखने में तो वह फ़सल कंक्रीट का जंगल लगती है, लेकिन वास्तव में वह कंक्रीट सोना होती है. समझदार किसान उसे काट लेता है और आगे बढ़ जाता है. यह तो सबको मालूम है कि मामूली किसान जो है, वो आम आदमी होता है. इस लिहाज़ से देखें तो आम आदमी के पास वाक़ई बहुत सोना है. यानी कि हमारे प्रधानमंत्री बिलकुल सही हैं. आख़िर, दुनिया भर में आजकल उनकी ईमानदारी और अर्थशास्त्रीय विद्वता का डंका ऐसे ही थोड़े बज रहा है!



Comments

  1. प्रधानमंत्री जी कुछ गलत कह ही नहीं सकते। आपने बिल्कुल दुरुस्त समझा दिया है। :P
    भारत सरकार में सलाहकार बनने का जुगाड़ लग गया है क्या?
    यह पेशबन्दी उसी का संकेत करती लगती है। :)

    ReplyDelete
    Replies
    1. सिद्धार्थ जी आपको कई लढ़िया धन्यवाद. मेरा तो अभी सलाहकारी की ओर ध्यान गया ही नहीं था. आपने ध्यान दिलाकर मेरे लिए नए दरवाज़े खोल दिए. वैसे भी कई पत्रकार सरकार के सलाहकार बन चुके हैं. यहां तक कि यूनिवर्सिटियों के भैंस चसलर भी बन चुके हैं. मैं जुरंत कोशिश शुरू कर देता हूं.

      Delete
  2. सुन्दर ......//एक बात पूंछना था ...ये प्रधान .जब .मंत्री बन जाता है तो क्या उसे ही प्रधान मंत्री कहते हैं ???

    ReplyDelete
    Replies
    1. नहीं दुबे जी, असल में जो प्रधान का चुनाव नहीं जीत पाता वह जब मंत्री बन जाता है तो उसे प्रधानमंत्री कहते हैं.

      Delete

Post a Comment

सुस्वागतम!!

Popular posts from this blog

रामेश्वरम में

इति सिद्धम

Bhairo Baba :Azamgarh ke

Most Read Posts

रामेश्वरम में

Bhairo Baba :Azamgarh ke

इति सिद्धम

Maihar Yatra

Azamgarh : History, Culture and People

पेड न्यूज क्या है?

...ये भी कोई तरीका है!

विदेशी विद्वानों के संस्कृत प्रेम की गहन पड़ताल

सीन बाई सीन देखिये फिल्म राब्स ..बिना पर्दे का

आइए, हम हिंदीजन तमिल सीखें