(यह व्यंग्य लोकपाल आन्दोलन की स्थिति और समय पर लिखा गया था जब आदरणीय अन्नाजी ने रामलीला मैदान में अनशन किया था। गत दिनों यह व्यंग्य समकालीन अभिव्यक्ति में प्रकाशित हुआ था।)
आचार के विरुद्ध युद्ध
-हरिशंकर राढ़ी
इन दिनों देश में एक युद्ध चल रहा है। युद्ध के अपने मजे हैं और यह मानव सभ्यता की जीवंतता के लिए उतना ही जरूरी है जितना कि शरीर के लिए भोजन। जब कहीं युद्ध छिड़ता है तो मुझे लगता है कि तुलसीदास के शब्दों में ‘सूखत धान परा जनु पानी’ वाली स्थिति है। युद्ध किस प्रकार का है, किस उद्देश्य को लेकर है, किस स्तर पर लड़ा जा रहा है; कौन कौरवदल में है और कौन पांडवदल में, किन अस्त्रों का प्रयोग किया जा रहा है, ये बातें अप्रांसगिक और अनुचित हैं । इतना ही कोई कम नहीं है कि युद्ध लड़ा जा रहा है और लोग मैदान में हैं; जागृति का शंख बज चुका है और लोगों ने मोर्चे संभाल लिए हैं।
इस बार का युद्ध वैसे पूर्ण युद्ध की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, यह मेरा निश्चित मत है। कारण यह है कि इसमें हर प्रकार के साधनों का प्रयोग नहीं किया जा रहा है। केवल वाक् और भीड़ के जरिए आमना-सामना हो रहा है। एक पक्ष के पास तो भीड़ भी नहीं है, हाँ ये बात अलग है कि उसके पास कानून की भीड़ है और वह रह-रहकर विपक्षी सूरमाओं पर कानून से वार किए जा रहा है। उनके पास कानून का अक्षय तूणीर है, पता नहीं कब खाली होगा। कानून का वार झेलना आसान काम नहीं है।
कानून का वार करने वाले देश के राजा हैं और बड़ी मशक्कत करके राजा बने हैं। पहले के राजाओं की तरह राज्य विरासत में नहीं मिला है। तब तो राजा बनना भी आसान था क्योंकि लाखों छल-छंद करके कोई चुनाव भी नहीं जीतना पड़ता था, जबकि आज के राजाओं को तो हर पाँच साल पर सड़ी-गली जनता, जिसे देखकर घिन आती है, के दरवाजे पर जाकर हाथ जोड़ना पड़ता है और हद तो तब हो जाती है जब उनके यहाँ चाय तक पीनी पड़ जाती है। कहाँ पाँचतारा होटल की स्वर्गिक अनुभूति और कहाँ....? लोकतंत्र जो न करा दे। एक तब के राजा थे- राज्य भी बपौती हुआ करता था। जहाँ तक जनता की बात है, वह अपनी दौंदती रहे। कौन पूछने वाला था उसको? हाल तो आज भी वही है। पूछने वाला हो भी तो जनता ने ही कौन सा प्रण कर लिया है कि आजाद हिन्द फौज बनानी ही है। हाँ, इधर काफी दिनों से कोई मनोरंजन, बड़ा दंगा-फसाद नहीं हुआ है। पब्लिक बोर हो ही रही थी। सोचा- चलो मजा ही ले आते हैं। अच्छी लड़ाई है, न चोट का डर न चपेट का, लड़ाका बनने का प्रमाणपत्र और आनन्द अलग से। कल रामलीला देखने उसी मैदान में जाते थे, आज अनशन लीला देख आते हैं। बाकी उसे कल कहाँ याद रहने वाला कि कोई लड़ाई भी चल रही है। जिसे मरना हो मरे। असली भगत सिंह को नहीं देखा, उनके साथ नहीं लडे़ तो क्या हुआ? उनके नाम की फिल्म तो देख ही ली। देशभक्ति के तरीकों की कोई कमी थोड़े ही है!
ऐसी लड़ाइयाँ अच्छी और सुरक्षित होती हैं। इन्हें भाषा विशेषज्ञ और मूर्धन्य विद्वान रक्तहीन क्रान्ति कहते हैं। इस तरह के युद्ध में शत्रु कोई जीवित प्राणी नहीं अपितु एक विचार या पद्धति होता है, एक भाव होता है। जब शत्रु ही मूर्त नहीं तो खतरा किस बात का ? पर ऐसा भी नहीं कि इसमें मूर्त शत्रु होता ही नहीं। विचार या भाव कौन से खेत में पैदा होता है? सीधी बात- जब तक शत्रु का मूर्त नहीं होगा, विचार या आचार पैदा ही नहीं होगा। पर शिष्टाचार यह है कि मूर्तरूप शत्रु हो तो भी उसका नाम नहीं लिया जाता। उसे बहुत सम्मानित बताया जाता है, बस उसके विचारों से विरोध प्रकट किया जाता है। ये बोल लगभग उसी धुन पर आधारित हैं कि पाप से घृणा करो, पापी से नहीं। पापियों को तो बढ़ने का अवसर दो, उनसे कोई खतरा नहीं ! उनकी वृद्धि हुए बिना भगवान भी अवतार नहीं लेते। विरोध करना है तो विचारों का करो, विचारहीनों का नहीं। पर दिक्कत यह है कि विचार, आत्मा और भूत एक ही बिरादरी के अन्तर्गत आते हैं क्योंकि इन्हें देख पाना किसी सामान्य जीवधारी के बस की बात नहीं। इन्हें तो पराशक्ति प्राप्त लोग शरीर ही देख पाते हैं। प्रकारांतर से आप यह भी कह सकते हैं कि इन्हें देखने का दावा करने वाले देश -काल में पराशक्ति से युक्त मान लिए जाते हैं।
आज का सर्वाधिक चर्चित युद्ध भी एक विचार या परम्परा के विरुद्ध ही लड़ा जा रहा है। इस परम्परा या विचार का नाम है भ्रष्टाचार ! यह एक ऐसा विचित्र युद्ध है जो मौखिक तौर पर एकतरफा है। मुश्किल यह है कि जिन लड़ाकों को भ्रष्टाचार जी का सैनिक बताया जा रहा है या जो अपने क्रिया-कलाप, वेश-भूषा , धर्म-भाषा , व्यवसाय और उठने-बैठने की स्टाइल से भी भ्रष्टाचार के सिपाही लग रहे हैं, वे भी कह रहे हैं कि वे भ्रष्टाचार के विरुद्ध हैं और चाहते हैं कि भ्रष्टाचार समाप्त हो; जनता अब इस नामुराद से ऊब चुकी है। वे जनता के मत की पंचवर्षीय उपज हैं, उनका भी कर्तव्य है कि इस ऊबन को दूर करें पर कोई विश्वास करने को ही तैयार नहीं। ऐसा पहले भी हो चुका है। ऐसे अनेक महापुरुष हुए हैं जो जिसके लिए जान की बाजी लगा रहे थे, उसीकी शिकायत भी कर रहे थे। यह एक ऊँचा आदर्श है जो सबकी समझ में नहीं आता। तो वे बेचारे किसी की समझ का क्या करें? जनता की याददाश्त कमजोर है तो किस-किसको शंखपुष्पी और अश्वगंधा बांटते फिरें ? इसकी जरूरत उन्हें भी है। जब वे कह रहे हैं कि वे भ्रष्टाचार के विरुद्ध हैं तो आप क्यों नहीं मान लेते? आखिर भीष्म पितामह ने दुर्योधन के पक्ष में इतना भयंकर युद्ध किया फिर भी इसी देश की जनता उन्हें दुर्योधन के विरुद्ध मानती है कि नहीं ? दोहरे मानदण्ड नहीं चलेंगे। यदि आप भीष्म पितामह को दुर्योधन के विरुद्ध मानते हैं तो इन्हें भ्रष्टाचार के विरुद्ध क्यों नहीं मानते ? आपको समानताएं नजर आती ही नहीं ! वे भी राज्य यानी सत्ता से बंधे थे, ये भी हैं। वहाँ भी भाग्य और विरासत से प्राप्त राज्य के स्वामी धृतराष्ट्र थे, यहाँ भी हैं। वहाँ अपनी मर्जी से गांधारी ने आँखों पर पट्टी बाँध रखी थी और होंठ सिल रखे थे, जनाब इधर भी वही हाल ! शकुनि उधर एक ही थे, इधर दल-बल के साथ अनेक हैं। अर्जुन वहाँ भी भीष्म को मार पाने में असमर्थ थे, यहाँ भी हैं। अन्तर यही है कि वहाँ एक ही शिखंडी था, यहाँ हजारों शिखंडियों के होते हुए भी कोई एक ऐसाशिखंडी नहीं है जो सामने आकर अर्जुन के रथ पर चढ़ सके और भ्रष्टाचार के प्रमुख सेनापतियों से आत्मसमर्पण करा सके या शरशैय्या पर भेज सके ! इतनी सारी समानताओं के बाद भी आपको विसमता नजर आती है तो यह आपका दृष्टिदोष है या दिशाभूल है।
हमें मान लेना चाहिए कि वे भ्रष्टाचार के खिलाफ होंगे। कोई ऐसे झूठ थोड़े ही बोलता है। मैं तो कहता हूँ कि आपको उनके प्रति सहानुभूति रखनी चाहिए। उनकी पीड़ा को समझने का प्रयास करना चाहिए। आपका क्या, आप तो अपने शत्रु के खिलाफ खुल्ला घूम रहे हैं और घोषित युद्ध लड़ रहे हैं। भ्रष्टाचार से आपका कोई रिश्ता नहीं और कोई लेना-देना नहीं। रिश्ता हो भी सकता था, लेकिन आपको अवसर ही नहीं मिला। अपना-अपना भाग्य ! क्या आपने कभी उन सिपाहियों के मानसिक द्वंद्व के विषय में सोचा है जो अपने प्रिय के विरुद्ध लड़ने का वक्तव्य दे रहे हैं ? जो आपका इतना अपना है, उसी के विरुद्ध युद्ध लड़ना; कायिक, वाचिक या मानसिक रूप से उसका नुकसान करना कितना मुश्किल होता है? गंभीर चिंतकों की मानें तो वे दोहरा युद्ध लड़ रहे हैं। आप तो एक मोर्चे पर लडे़ जा रहे हैं जबकि वे दो मोर्चों पर लड़ रहे हैं। एक लड़ाई तो उनके अपने अन्दर चल रही है। जिस संतान को साठ सालों से पाल-पोसकर बड़ा किया और जब वह अपने पैरों पर खड़ी होकर कुछ कमाकर देने लायक हुई तो आप कह रहे हैं कि उसके विरुद्ध युद्ध लड़ो और उसे मार डालो ? आप तो कहेंगे ही ! आपका क्या जाता है? आपका उससे कौन सा खून का रिश्ता है? कौन सा देशी -विदेशी बैंक भर रखा है उसने आपका ? रिश्ते निभाना आप क्या जानें ? सन्तान तो किसी और की मारी जाएगी, आपका क्या जाएगा? आप मनुश्य नहीं, भीड़ हैं। चार-छः साल बाद मशीन का एक बटन दबाकर देश के नियन्ता बनना चाहते हैं ? इतने लगाव के बावजूद वे (सीने पर पत्थर रखकर) कह तो रहे हैं कि वे भी भ्रष्टाचा के खिलाफ हैं और उसे खतम भी करेंगे। इतना कहना भी कोई कम त्याग नहीं है ! समझने की कोशिश तो करिए। सारा काम छोड़कर बिना रामलीला के ही एक मैदान में जमा होने लग गए। और तो और, लंगर-भंडारा भी फान दिए ! जहाँ जाओगे वहीं खाने की बात सोचोगे और बात करोगे भ्रष्टाचार की ! एक बन्दा भूखा बैठा है और तुम्हें तफरीह की पड़ी है ? तुमने तो उससे एक बार भी नहीं कहा कि बाबाजी अब तो कुछ खा-पी लो। दूसरी तरफ वे इतने बड़े थे, फिर भी अपील पर अपील करते गए कि अब खा लो, अब खा लो। आपकी भूख हमसे देखी नहीं जाती। यह शायद पहला मौका था जब उनसे किसी की भूख नहीं देखी जा सकी।
मुझे तो उनकी बात में दम लगता है। उनका कहना है कि भ्रष्टाचार को मिटा पाना संभव नहीं। मनुष्य का काम वैसे भी मिटाना नहीं है। यह एक नकारात्मक सोच है। सकारात्मक सोच तो यह है कि सह अस्तित्व में ही जीवन का आनन्द है और हर खराब लगने वाली चीज में भी कुछ न कुछ अच्छाई होती है। इस शब्द में भी एक अंश ‘आचार’ है। आप सदाचार, आचार और विचार का सम्मान तो करते हैं फिर भ्रष्टाचार का क्यों नहीं? यह भी तो उसी भाषाई खानदान का है।
(शेष अगली किश्त में )
शानदार लेख के लिए बधाई
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