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हर बात में कहते हैं वो मुझसे कि तुम्हे क्या ? माली चमन को लूट के खाए तो तुम्हे क्या ? सुनवाई हुई पूरी सज़ा बरकरार है - फांसी पे न हम उसको चढ़ाएं तो तुम्हे क्या? ज़म्हूरियत में चुनना सिर्फ सबका फ़र्ज़ है - रहज़न उम्मीदवार है तो इससे तुम्हे क्या ? दर दर पे सिर झुकाके है सेवा का व्रत लिया- फिर पांच साल हाथ न आयें तो तुम्हे क्या ? मेरे ही बुजुर्गों ने बसाई थीं बस्तियाँ - मैं आग अगर उनको लगाऊं तो तुम्हे क्या ? इस देश का पैसा तो विदेशों में जमा है - इस देश में वापस नहीं लाएं तो तुम्हे क्या ? यह माना पातिव्रत्य तेरा संस्कार है - तेरा पति मेरे साथ सो जाए तो तुम्हे क्या ? मेरा वज़ीरेआज़म तो ईमानदार है- आरोपों की न जांच कराए तो तुम्हे क्या ? विनय ओझा 'स्नेहिल'

हाय हम क्यों ऩा बिक़े-2

(दूसरी किश्त) हरिशंकर राढ़ी  ''हो सकता है कि आपकी बात ठीक हो, पर ऐसा पहले नहीं था। आजकल पतन थोड़ा ज्यादा ही हो गया है। आज तो लोग-बाग खामखाह ही बिके जा रहे हैं।'' बोधनदास जी कुछ व्यंग्य पर उतर आए। मुझे लक्ष्य करके बोले, ''सरजी, किस जमाने की बात कर रहे हो ? कहाँ से शुरू  करूँ ? किस युग का नाम पहले लूँ ? सतयुग ठीक रहेगा क्या ? आपको मालूम है कि सबसे बड़ा  और सबसे पहले बिकने वाला आदमी कौन था? उसे खरीदा किसने था ?'' अब मैं चुप ! बिलकुल चुप ! ऐसा नहीं था कि मुझे कोई उत्तर नहीं सूझ रहा था; मैं अपने आपको फंसता हुआ महसूस कर रहा था। मैंने नकारात्मक शैली  में सिर हिलाया।  ''भाई मेरे, मनुष्यों  की बिक्री सतयुग से ही शुरू  है। आप उससे अच्छे जमाने की कल्पना तो कर ही नहीं सकते ! आपको याद है कि सतयुग में अयोध्या के परम प्रतापी राजा हरिश्चंद्र  बिके थे ? बिके क्या नीलाम ही हुए थे। हुए थे या नहीं ?'' इस बार तो जैसे मैं उछल ही पड़ा  । मुझमें जान आ गई। मुझे लगा कि अब प्वाइंट मिल गया है जिसपर मैं इन्हें लथेड  सकता हूँ। मैं उच्च स्वर में बोला, ''क्

हाय, हम क्यों न बिके?

हरिशंकर  राढ़ी मैं शाम  की चाय का सुख लेने ही जा रहा था कि बोधनदास पधार गए। वे मेरे अज़ीज़  और अजीब पडोसी  हैं और अक्सर पधारते ही रहते हैं। आप एक सरकारी महकमे से सेवानिवृत्त हो चुके हैं, इसलिए दुनिया का सर्वोत्तम व्यावहारिक ज्ञान रखते हैं। ऐसे समय पर आते हैं कि चाय भी मिल जाए और समय भी कट जाए। इसके बदले वे अपना उपदेश  रूपी ट्यूशन पढ़ा  जाते हैं, ऐसा माना जा सकता है। मेरा भभका हुआ किन्तु निराश  सा चेहरा देखकर वे अपने कर्तव्यपथ पर आ डटे। शायद उन्हें एहसास हो गया कि कोई जोर का झटका लगा है।  बोधनदास जी बिना किसी औपचारिकता के सामने वाली कुर्सी को सुविधानुसार व्यवस्थित करके जम गए। छूटते ही बोले,'' भाई क्या बात है? बेवक्त ही चेहरे पर बारह क्यों बज रहे हैं ? क्या हो गया ? घर में सब ठीक तो है ?'' मन में आया कि कह दूँ कि आप जैसे लोगों ने ही तो देश  का बेडा गर्क कर रखा है ! 'घर' से बाहर न निकलने की तो जैसे कसम ही खा ली है। सारा जीवन अपने और अपने घर के बारे में ही तो सोचते रहे। घर के बाहर तो मानो कोई दुनिया ही नहीं। फिर भी मैं प्रतिक्रियाशून्य  रहा। मेरी भाव शून्य  

बाइट प्लीज (उपन्यास भाग-5)

8.              रांची के सफर पर नीलेश पहली बार निकला था। बिहार के बटवारे के पहले वह हजारीबाग में सेंट कोलंबस कालेज के ठीक बगल के एक रिहायसी इलाके में रह चुका था । वहां की जंगलों , झाड़ों और खुले मैदानों ने उसे खासा आकर्षित किया था। जंगलों में अकेले दूर तक भटकना उसे अच्छा लगता था। जब सुकेश से उसकी रांची चलने की बात हुई थी , उसने यात्रा के लिए सबसे पहले बस को ही चुना था। एक रात की दूरी वाली यात्राओं के लिए वह अक्सर बस को ही पसंद करता था। बस के सफर में पूरी रात उसे सोचने का मौका मिल जाता था , यदि कोई साथ में सफर कर रहा हो तो , बातचीत का मौका भी। सुबह परिवहन भवन से बस की टिकट लेने के बाद रात में दोनों बिहार परिवहन विभाग की एक बस में सवार में थे। बस सरपट रांची की ओर दौड़ रही थी , हवाओं के तेज झोंके बस के आरपार हो रहे थे , क्योंकि खिड़कियां खुली हुई थी। नीलेश बस की अंतिम सीट पर आराम से लेटा हुआ था , उसके ठीक आगे वाली सीट पर साइड में सुकेश बैठा हुआ था। रात हो चली थी , सड़कों पर आगे और पीछे तेजी से भागती हुई गाड़ियों की लाइटें दिख रही थी और कभी - कभी उनके कानों में हार्न की तीखी आवाजें

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