उत्तर आधुनिक शिक्षा में मटुक वाद - दूसरी किश्त

- हरिशंकर राढ़ी
माना कि प्रो० मटुकनाथ से पूर्व और उनकी उम्र से काफी अधिक या यूँ कहें कि श्मशानोंमुख असंखय प्राध्यापकों ने ऐसा या इससे भी ज्यादा पहले किया था, किन्तु वे इसे आदर्श रूप में प्रस्तुत नहीं कर पाए थे।उनके अन्दर न तो इतना साहस था और न ही क्रान्ति की कोई इच्छा।जो भी किया , चुपके से किया। छात्राओं के सौन्दर्य एवं कमनीयता का साङ्‌गोपांग अध्ययन किया, गहन शोध किया और अपनी गुरुता प्रदान कर दी । प्रत्युपकार भी किया, पर चुपके- चुपके।आज न जाने कितनी पीएचडियाँ घूम रही हैं और न जाने कितने महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में ज्ञान बांटकर पैसे और इज्जत बटोर रही हैं, देश की बौद्धिक सम्पदा की प्रतीक बनी बैठी हैं।ये बात अलग है कि गुरुजी ने कितना बड़ा समझौता शिक्षा जगत से किया, कितना बड़ा पत्थर सीने पर रखा , ये वही जानते हैं। पर मन का क्या करें? अब वे भी उदार भाव से पीएचडी बाँट रही हैं। प्रोफेसर साहब की असली शिष्या जो ठहरीं!
पर दाद देनी होगी अपने प्रोफेसर मटुकनाथ जी को जिन्होंने इस तरह के गुमशुदा एवं निजी संबन्धों को मान्यता प्रदान की और मटुकवाद स्थापित किया। उनको एक उच्च दार्शनिक की श्रेणी में रखना चाहिए।इस तरह का साहसिक निर्णय कोई दार्शनिक ही कर सकता है। ये बात अलग है कि ऐसे लोगों को दुनिया पागल मान लेती है। हालांकि प्रेमी, पागल और दार्शनिक में कोई मूल अन्तर नहीं होता। सुकरात को जहर दे दिया और अरस्तू की छीछालेदर में कोई कसर नहीं छोड़ी । इतने दिनों बाद ही हम उनकी बात जैसे -तैसे समझ पाए हैं।मार्क्सवाद ,लेनिनवाद को ले लीजिए, कितने दिनों बाद जाकर इसे प्रतिष्ठा मिली! अपने मटुकनाथ ने भी कोई कम प्रताडना नहीं झेली। लोगों ने चेहरे पर कालिख पोती, चरण पादुकाओं का हार भी पहनाया पर इस महात्मा के चेहरे पर शिकन नहीं आई। प्रेम पियाला पीने वाला इस दुनिया की परवाह करता ही कब है ? मीरा ने तो जहर का प्याला पी लिया था।
सर्वमान्य तथ्य तो यह है कि मनुष्य अधेड़ावस्था के बाद ही स्त्रीदेह के सौन्दर्य को आत्मसात कर पाता है, ठीक वैसे ही जैसे वास्तविक शिक्षा विद्यार्थी जीवन के बाद ही प्राप्त होती है।विद्यार्थी जीवन में तो मनुष्य परीक्षा पास करने के चक्कर में रट्टा मारता ही रह जाता है, अर्थ समझ में ही नहीं आता! अधेड ावस्था से पूर्व तो वह एक्सपेरिमेन्ट के दौर से ही गुजरता रह जाता है। गंभीरता नाम की कोई चीज होती ही नहीं, बस भागने की जल्दी पड़ी होती है।ऐसी स्थिति में एक नवयुवक किसी नवयौवना को क्या खाक समझेगा ? कमनीयता की उसे कोई समझ ही नहीं होती! जब तक वह समझदार होता है, सहधर्मिणी में खोने लायक कुछ बचा ही नहीं होता। अतः पचास पार की उम्र में ही वह एहसास कर पाता है कि किशोरावस्था पार करती छात्रा वास्तव में होती क्या है ? मटुकवाद की गहराई में जाएं तो अर्थ यह निकलता है कि ऐसी छात्रा एकदम नई मुद्रित पुस्तक का मूलपाठ होती है- बिना किसी टीका-टिप्पणी एवं अंडरलाइन की! अब उसका अर्थबोध, भावबोध एवं सौन्दर्यबोध तो कोई अनुभवी प्राध्यापक ही कर सकता है, एक समवयस्क छात्र नहीं जिसका उद्देश्य गाइडों एवं श्योर शाट गेस्सपेपर से शार्टकट रट्टा मारकर परीक्षा पास करना मात्र है।
गुरूजी इतना कुछ करके दिखा रहे हैं।लर्निंग बाइ डूइंग का कान्सेप्ट लेकर चल रहे हैं। प्रेम करने की कला छात्र उनसे निःशुल्क प्राप्त कर सकते हैं । परन्तु वे अनुशासनहीन होते जा रहे हैं। प्रोफेसर साहब के खिलाफ ही हंगामा खड़ा कर दिया। मजे की बात यह कि बिना शिकायत के ही पंचायत करने आ गए। छात्राजी की शिकायत बिना ही संज्ञान ले लिया। अपने यहाँ तो पुलिस और प्रशासन भी बिना शिकायत कार्यवाही नहीं करते। हकीकत तो यह है कि शिकायत के बाद भी कार्यवाही नहीं करते और एक ये हैं कि बिना शिकायत ही दौड़े चले आ रहे! शायद यह सोचा होगा कि उनके हिस्से की चीज गुरूजी ने मार ली, वह भी इस आउटडेटेड बुड्‌ढे ने!

अब इन मूर्ख शिक्षार्थियों को कौन समझाए कि आखिर वो बेचारी मिस कूली अकेली क्या करती । सारी की सारी शिक्षर्थिनियाँ तो गर्लफ्रेण्ड बन चुकी थीं , वही बेचारी अकेली बची थी। तुम्हें तो फ्लर्ट करने से ही फुरसत नहीं! वैसे भी समलैंगिकता को मान्यता मिलने के बाद तुम्हें लड़कियों मे कोई इन्टरेस्ट नहीं रह गया है। तुम्हारे भरोसे तो वह कुँआरी रह जाती ! लेस्बियनपने का लक्षण न दिखने से वैसे ही पुराने एवं संकीर्ण विचारों की लगती है। ऐसी दशा में उसे पुरानी चीजें ही तो पसन्द आतीं और उम्र में तिगुने गुरूजी पसन्द आ गये तो हैरानी किस बात की।
असमानता तो बस उम्र की ही है। इतिहास भी असमानता की स्थिति में ही बनता है।प्रो० साहब उम्र और ज्ञान में बिलकुल ही भिन्न हैं तो इतिहास बना कि नहीं? शिक्षार्थी गण , अगर आप में से कोई मिस कूली को हथिया लेता तो क्या आज शिक्षा के क्षेत्र में मटुकवाद का आविर्भाव होता ?
मानिए न मानिए, मिस कूली बहुत ही उदार, ईमानदार एवं गुरुभक्त है। समर्पण हो तो ऐसा ही हो! कहाँ एक तरफ गुरू का कत्ल करने वाले आज के शिष्य गण और कहाँ गुरु को इतना प्यार करने वाली शिष्या! गुरुऋण से मुक्ति पा लिया।अब अगर गुरु ही ऋण में पड जाए तो पड़े । बिना दहेज ही सेटेल्ड पति पा लिया, वर्तमान पगार से लेकर निकट भविष्य में मिलने वाली पेंशन का अधिकार भी सहज ही मिल गया, इस जमाने में ऐसा भाग्य सबका कहाँ ? ज्ञानियों ने कहा है कि शादी उससे मत करो जिसे तुम प्यार करते हो बल्कि उससे करो जो तुम्हें प्यार करता हो। तुम्हारा क्या, तुम तो किसी से प्यार कर सकते हो!वह तो अपने हाथ में है।

युगों से शिक्षा जगत नीरसता का रोना रो रहा है। शिक्षाविदों के हिसाब से शिक्षा व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करती है। यहां शिक्षा केवल सूचनाओं का संकलन मात्र बनकर रह गई है। करने के नाम पर कुछ रह ही नहीं गया है।सृजन का कोई स्कोप ही नहीं रहा। बड़े-बड़े शिक्षाविद भी भारतीय शिक्षा को रोचक नहीं बना पाए। शैक्षिक अनुसंधान परिषद् सिर पटकते रह गए परन्तु लर्निंग ज्वॉयफुल बन ही नहीं पाई।कम्प्यूटर , खेल, संगीत एवं कार्य शालाएं सफेद हाथी ही सिद्ध हुए।पोथी पढि -पढि जग मुआ। पर , अपने मटुकनाथ मिस कूली से मिलकर एक ही झटके में शिक्षा को रोचक एवं उद्देश्य पूर्ण बना दिया।ज्ञानयोग एवं प्रेमयोग का अनूठा संयोग शिक्षा को मृगमरीचिका से बाहर लाया।बुजुर्ग एवं युवा पीढ़ी का मिलन हो गया। जेनरेशन गैप की अवधारणा निर्मूल सिद्ध होने लगी। शिक्षक एवं शिक्षर्थिनियाँ एक दूसरे के हो गए। पुरानी वर्जनाएँ टूट गई। शिक्षा में यह एक नए युग का सूत्रपात है। माना कि कुछ लोग विरोध में भी हैं, पर विरोध किस वाद का नहीं हुआ है ? पोंगापंथी कब नहीं रहे ? पर हाँ, यदि हमें एक सम्पूर्ण विकसित देश बनना है और पाश्चात्य जगत को टक्कर देनी है तो मटुकवाद को समर्थन देना ही होगा।

Comments

Post a Comment

सुस्वागतम!!

Popular posts from this blog

रामेश्वरम में

इति सिद्धम

Bhairo Baba :Azamgarh ke

Most Read Posts

रामेश्वरम में

Bhairo Baba :Azamgarh ke

इति सिद्धम

Maihar Yatra

Azamgarh : History, Culture and People

पेड न्यूज क्या है?

...ये भी कोई तरीका है!

विदेशी विद्वानों के संस्कृत प्रेम की गहन पड़ताल

सीन बाई सीन देखिये फिल्म राब्स ..बिना पर्दे का

आइए, हम हिंदीजन तमिल सीखें