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Showing posts from April, 2010

क्यों जाने दिया उसे?

रतन 1 कोलाहल का तांडव खंडित है नीरव भीड़ चहुंओर भागा-भागी का दौर सब हैं अपने काम में मगन फुरसत नहीं किसी को पल भर की सुबह हुई शाम हुई जिंदगी रोज तमाम हुई 2 जहां थी कोलाहल की आंधी सब कुछ पड़ा है आज मंद खामोश दरो-दीवारें बे-आवाज जंजीरें न घुंघरू की छम छम न तबले की थाप न सारंगी की सुरीली धुनें न हारमोनियम का तान न कोई कद्रदान न किसी का अलाप न रिक्शे का आना न ठेली का जाना न कुत्ता, न कमीना गली है सूना-सूना बस आती है आवाज सायरन की अक्सर तो होती है कानाफूसी घर ही घर में न आवाज बाहर को जाती किसी की कि आई पुलिस है मोहल्ले में अपने 3 राम-रहीम दो दिल हैं मगर एक जां हैं वे बचपन से जब से वे स्कूल गए अब हैं अधेड़ मगर उनकी दोस्ती है पाक, जवां आज भी, अब भी एक-दूसरे से मिलना होता है रोज न मिले, एक दिन तो लगता है ऐसे कि गोया मिले हैं नहीं हम बरस से 4 है एक दिन यह भी कि सूनी हैं सड़कें लगी है शहर में पहरेदारी कफ्र्यू की गुजरता है दिल पर नहीं जाने क्या-क्या कि मिलना हो कैसे हमारा-तुम्हारा मोहल्ला है दूर बंटा हुआ, जातियों में राम का अपना, रहीम का अपना

क्यों मुस्काते हो..?

रतन  जब मैं सदमे में जीता हूं तब तुम क्यों मुस्काते हो? मंजर है नहीं आज सुहाना क्यों तुम गीत सुनाते हो? पाया नसीबा हमने ऐसा अक्सर तुम कहते मुझसे मैं तो हूं पछताने वाला अब तुम क्यों पछताते हो? जब तक था मन साथ तुम्हारे तुमने दूरी रखी कायम अब हारा हूं थका हुआ हूं तो क्यों कर तड़पाते हो? तन खोया मन भूल चुका है वो सपनों के घर-आंगन रातों में ख्वाबों में क्यों तुम आकर मुझे सताते हो? मेरी अपनी राम कहानी है मैं उस पर रोता हूं अब क्या पाओगे मुझसे तुम नाहक अश्क बहाते हो? बुझी हुई तकदीर है मेरी अब न नसीबा जागेगा जान चुके हो रोज रोज क्यों आकर शमां जलाते हो?

तुम कहां गए

रतन बतलाओ तुम कहां गए बरसों बाद भी तेरी यादें आती हैं नित शाम-सवेरे जब आती है सुबह सुहानी जब देते दस्तक अंधेरे कोना कोना देखा करता नजर नहीं तुम आते हो मन में बसते हो लेकिन क्यों अंखियों से छिप जाते हो बतलाओ तुम कहां गए हम जाते हैं खेत गली हर हम जाते हैं नदी किनारे उम्मीदें होती हैं जहां भी जाते हैं हर चौक चौबारे पानी में कंकड़ फेंको तो हलचल जैसे होती है मुझे देखकर अब यह दुनिया पगला पगला कहती है बतलाओ तुम कहां गए तुम मत आना हम आएंगे छिपकर तुमसे मिलने को जानेंगे नहीं दुनिया वाले मेरे इस इक सपने को बोझिल ना कर उम्मीदों को मन को अपने समझाओ माना होगी मजबूरी कुछ आ न सको तो बतलाओ बतलाओ तुम कहां गए

मौजूं दुनिया इतनी डरावनी क्यूं हैं?

मौजूं दुनिया इतनी डरावनी क्यूं हैं? सनसनाते हुये हवाई जहाज गगनचुंभी बिल्डिंगो को चीर डालते हैं, और फिर इनसानी गोश्त लपलपाती हुई लपटों में भूनते जाते हैं। फिर असलहों से लैस कई मुल्कों की फौज धरती के एक कोने पर आसमान से उतरती हैं और मौत का तांडव का शुरु कर देती है। अल्लाह हो अकबर के नारे बारुदी शोलों के भेंट चढ़ जाती हैं। फतह और शिकस्त के खेल में एक दूसरे को हलाक करते हुये सभ्य दुनिया के निर्माण की बात नब्ज के लहू को ठंडा कर जाती है, फिर सवालात दर सवालात खुद से जूझना पड़ता है। धुंधली हो चुकी परिकथाओं को कई बार जेहन में लाने की कोशिश करता हूं, शायद जादुई किस्सागोई खौलती हुई खंजरों के घाव को तराश कर कुछ देर के लिए अलग कर दे। उन चुंबनों की कंपकंपाहट को भी समेटने की कोशिश करता हूं जो कभी जिंदगी की हरियाली में यकीन दिलाती थी। लेकिन एके -47 की तड़तड़ाहट खौलते हुये शीशे की तरह कानों के अंदर पिघलता हुआ बेचैनी के कगार पर खड़ा देता है। लाल सलाम जिंदाबाद!! माओत्से तुंग जिंदाबाद!! की गूंज की निरर्थकता शरीर को सुन्न कर देता है। लोभ में गले तक डूबी हुई काहिल सरकार की निर्मम असंवेदनशीलता मुर्दे जैसी

वास्तव में यह माओवादियों की युद्ध रणनीति को न समझने का मामला

तथाकथित सभ्य समाज में माओवादियों द्वारा 75 जवानों को मौत के घाट उतारना उतना ही निंदनीय है, जितना स्टेट पावर द्वारा नक्सलियों के दमन के लिए चलाया जा रहा आपरेशन ग्रीन हंट। भावुकता से इतर हटकर यदि हम निरपेक्ष रूप से नक्सलियों और केंद्र सरकार के बीच जारी घमासान का आकलन करने की पहलकदमी करें तो शायद परत दर परत कुछ ऐसे पहलू सामने आएंगे, जिससे दोनों पक्षों को समझने में सहूलियत होगी। वैसे वर्तमान बुद्धिवादी समाज नक्सलवाद को लेकर स्पष्टरूप से दो भागों में बंटा हुआ है। एक वर्ग नक्सलवाद का धूर विरोधी है तो दूसरा वर्ग नक्सलवाद के प्रति सहानुभूतिपूर्ण रवैये की वकालत करते हुये नजर आ रहा है। दोनों वर्ग के अपने-अपने तर्क है जबकि आम जनमानस हतप्रभ स्थिति में सारे प्रकरण को देख और सुन रहा है। सैद्धांतिक रूप से भारत में माओवादियों का फंडा पूरी तरह से स्पष्ट है। माओ में थोड़ी बहुत दिलचस्पी रखने वाले लोगों को भी पता है कि माओ सत्ता को बंदूक से हथियाने पर जोर देता है। माओ का यह कथन- शक्ति बंदूक की नली से निकलती है- कितना प्रासांगिक है, इसे लेकर भले ही बहस हो सकती है, लेकिन इस कथन में यकीन करने वाले लोग जमीनी

बिहार में रिफोर्मिस्ट की कमी है

कल रात अचानक बिहार आर्ट थियेटर की दुनिया के एक मजे हुये सख्सियत से मुलाकात हो गई। बातों ही बातों में मैंने पूछा, भारंगम में बिहार आर्ट थियेटर की क्या उपस्थिति है। उन्होंने कहा, कुछ भी नहीं। एक बार हमने भारंगम में बिहार आर्ट थियेटर से एक नाटक भेजा था। जानते हैं उसका जवाब क्या आया? एनएसडी का लेटर आज भी पड़ा है। उसमें लिखा है कि आपका नाटक बेहतर है, लेकिन हम इसे अपने सम्मेलन में शामिल नहीं कर सकते हैं। अगले वर्ष इस पर विचार करेंगे। थोड़ा हिचकते हुये मैंने छेड़ा, अगले वर्ष से क्या मतलब है। उन्होंने कहा, आपको बात बुरी लगेगी लेकिन इसमें सच्चाई है। भारंगम एनएसडी का कार्यक्रम है, और इसमें उन्हीं लोगों के नाटक को सम्मिलित किया जाता है, जो लोग एनएसडी से जुड़े हुये हैं। हां, दिखावे के लिए एक-दो नाटक यहां- वहां से वे लोग ले लेते हैं। सब पैसे बटोरने का खेल है। एनएसडी का लेटर अभी भी मेरे पास पड़ा हुआ है। आप कहें तो मैं दिखाऊं। पटना के कालिदास रंगायल में मेरे साथ दो-तीन लोग और बैठे हुये थे। उस सख्सियत की बातों में मुझे रस मिल रहा था। बात को आगे बढ़ाते हुये मैंने कहा, महाराष्ट्र में लोग टिकट खरीद कर न

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