साहित्य की चोरी

[] राकेश 'सोहम'
विगत दिनों मेरे साहित्य की चोरी हो गई । आप सोच रहे होंगे, साहित्य की चोरी क्यों ? साहित्यिक चोरी क्यों नहीं ? साहित्य और सहित्यकारों के बीच साहित्यिक चोरियां देखी और सुनी जातीं हैं । एक साहित्यकार दूसरे साहित्यकार की रचना चुराकर छपवा देते हैं । मंच के कवि दूसरे कवियों की रचनाएं पढ़कर वाह-वाही लूटते हैं । आजकल साहित्यिक मंचों पर सर फुटौवल, टांग - खिंचौवल और साहित्यिक चोरियां फैशन में हैं ।

मैं अपनी इस चोरी को साहित्यिक चोरी इसलिए नहीं कह सकता क्योंकि इसमें ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था । वैसे मेरे जैसे टटपूंजिया साहित्य सेवी की रचनाएं चुराकर कोई करेगा भी क्या ? यदि छोटे साहित्यकार की रचना चोरी हो जाए तो वह ऊँचा साहित्यकार हो जाता है । ये बात अलग है की छोटे साहित्यकार अपनी श्रेष्ठ रचनाएं बड़े साहित्यकारों के नाम से छपवाकर संतोष कर लेते हैं ।

जी हाँ, मैं कह रहा था की मेरे साहित्य की चोरी हो गई । मुझे अपनें कार्यालय से फायलों को ढोनें हेतु एक ब्रीफकेस मिला था । जिसका प्रयोग हम अपने साहित्य को घर से कार्यालय और कार्यालय से घर लाने-लेजानें में करते थे । हम जो भी रचनाएं लिखते उसे पत्रिकाओं में प्रकाशनार्थ भेज देते । जिसे सम्पादक सखेद फ़ौरन वापस भेज देते । हम दुखी होकर उन्हें इस ब्रीफकेस के हवाले कर देते । इस प्रकार हमारा ब्रीफकेस नई-पुरानी रचनाओं से भर गया था ।

एक दिन मैं बीफ्केस लेकर, ऑफिस से घर की ओर जा रहा था कि एक सूनी गली में एक लुटेरे ने छुरा दिखाकर मेरा ब्रीफकेस छीन लिया । उसका अनुमान रहा होगा कि इसमें नोट भरे हुए हैं । छीना - झपटी के दौरान मैंने उसे समझाने की कोशिश की कि इस ब्रीफकेस में मेरी ऐसी अमूल्य-निधि है जो तुम्हारे किसी काम की नहीं है । इसे देखकर तुम सर फोड़ लोगे । लेकिन वह न माना । मेरे ब्रीफकेस को हर्षद का बैग समझकर चंपत हो गया ।

वैसे मेरे लिए मेरा साहित्य अमूल्य - निधि ही है । इस बात को वह ग़लत समझ गया । मैं परेशान ओर निराश होकर पुलिस थाने पहुँचा । रिपोर्ट लिखनी थी । पुलिस थानों की अवांछित परेशानी जो आम नागरिकों को झेलनी पड़ती है, मुझे भी झेलनी पड़ी । तब कहीं जाकर रिपोर्ट दर्ज कर्ता हमारी ओर मुखातिब हुआ ।

"बोलिए, क्या हुआ ?", पुलिस कर्मचारी ने कलम और रजिस्टर उठाते हुए पूछा ।

"मेरे साहित्य की चोरी हो गई ", मैंने निराश मन से कहा ।

"साहित्य की चोरी हो गई ?", पुलिस कर्मचारी ने आश्चर्य से पूछा और आगे कहा, "..फ़िर हमारे पास क्यों आए हो, सम्पादक के पास जाओ ।"

"जी, मेरा मतलब वो नहीं है । "

"फ़िर क्या मतलब है ?" वह गंभीर हो गया ।

"जिस ब्रीफकेस में मेरा साहित्य रखा था वह आज गुंडों ने रात्रि घर लौटते समय छीन लिया । ", मैनें स्पष्ट किया

"मूर्ख था ", वह बुदबुदाया ।

" जी !!" मैं चौंका ।

"कुछ नहीं .........और क्या-क्या था उसमें ?"

"एक बिना ढक्कन का पेन, कुछ सफ़ेद कागज़ कुछ अस्वीकृत रचनाओं सहित नई रचनाएं

"क्या फालतू सामन बता रहे हो ! कोई कीमती सामन था उसमें ?"

"हाँ"

"क्या ?"

"मेरा अमूल्य साहित्य । "

"पता नहीं कहाँ-कहाँ से आ जाते हैं । " कर्मचारी पुनः बुदबुदाया और फ़िर मेरी ओर देख कर पूछाक्या कीमत रही होगी ?"

"साहित्य की ?" मैनें उतावलेपन से स्पष्ट करना चाहा ।

"नहीं, ब्रीफकेस की । "

"जी मालूम नहीं वह तो ऑफिस से मिला था ", मेरे लिए ब्रीफकेस की कीमत कुछ भी नहीं थी ।

"फ़िर क्यों परेशान हो रहेहो ?" उसने सलाह भरे लहजे में कहा , " खैर तुम्हारा ब्रीफकेस दिलाने की पूरी कोशिश करेंगे । वैसे ऐसी चीजें मिलती नहीं । आपकी रिपोर्ट हमनें दर्ज कर ली है । लिख कर दे देता हूँ । ऑफिस से दूसरा ब्रीफकेस मिल जाएगा ।"

"नहीं, मुझे ब्रीफकेस नहीं , अपना साहित्य चाहिए । "

"वो कहाँ से मिलेगा ? कुछ नाम-वाम है ? कोई प्रमाण है कि वे रचनाएं आपकी हैं । " शायद वह कर्मचारी रचना, साहित्य और रचनाधर्मिता से परिचित था ।

"बदमाश, आदमी हो कि पायजामा, शर्म नहीं आती, कमीनें, चोरी होनें का सुख ...."

"ये क्या बक रहे हो ? थाने मैं गाली-गलौंच की तो अन्दर कर दूँगा, समझे । " वह आग बबूला हो गया ।

"माफ़ करिए , ये मेरी रचनाओं के शीर्षक हैं जो उस बेग में थीं । "

"अच्छा-अच्छा ठीक है । आपकी रिपोर्ट दर्ज कर ली है, नमस्ते । " उस कर्मचारी नें ज़ोर से दोनों हथेलियाँ आपस में टकराई और मुझे विदा हेतु नमस्कार किया ।

मैं परेशान वापस आ गया ।

कई दिनों इंतज़ार किया । थानें जाकर पूछताछ कर्ता रहा किंतु कुछ पता न चला ।

अचानक तीन-चार माह बाद ।

हमारी रचना एक प्रतिष्ठित पत्रिका में पढ़नें को मिली । नाम मेरा नहीं था । जानकारी लेनें पर ज्ञात हुआ , नाम उस थाने के उसी कर्मचारी का था जिसने रपट लिखी थी । किंतु मैं कुछ न कर सका क्योंकि हमारे पास चोरी गई रचनाओं के सम्बन्ध में कोई प्रमाण न था ।

हाय , साहित्य की चोरी ।

Comments

  1. लेख पढ़कर तो भैया मज़ा आ गया :)

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  2. रचनाकारों की आह..
    चोरों की वाह......
    मजा आ गया।

    ReplyDelete
  3. वैसे भी रचनाओं के जो शीर्षक आपने बताए हैं, उससे वे आपकी कम किसी थानेदार की ज़्यादा लगती हैं. ठीक-ठीक जानकारी के लिए इनका डीएनए टेस्ट कराया जाना चाहिए.

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  4. चोरी तो हुईं
    छप भी गईं
    इससे बेहतर
    और क्‍या हो सकता था
    आपके पास तो गुमनामी
    के अंधेरे में ही पड़ी रहतीं।



    जो होता है सदा

    अच्‍छे के लिए होता है।

    ReplyDelete

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