बोलो कुर्सी माता की - जय



इष्ट देव सांकृत्यायन
अधनींदा था. न तो आँख पूरी तरह बंद हुई थी और न खुली ही रह गई थी. बस कुछ यूं समझिए कि जागरण और नींद के बीच वाली अवस्था थी. जिसे कई बार घर से भागे बाबा लोग समाधि वाली अवस्था समझ लेते हैं और उसी समय अगर कुछ सपना-वपना देख लेते हैं तो उसे सीधे ऊपर से आया फरमान मान लेते हैं. बहरहाल में चूंकि अभी घर से भगा नहीं हूँ और न बाबा ही हुआ हूँ, लिहाजा में न तो अपनी उस अवस्था को समाधि समझ सकता हूँ और उस घटना को ऊपर से आया फरमान ही मान सकता हूँ. वैसे भी दस-पंद्रह साल पत्रकारिता कर लेने के बाद शरीफ आदमी भी इतना तो घाघ हो ही जाता है कि वह हाथ में लिए जीओ पर शक करने लगता है. पता नहीं कब सरकार इसे वापस ले ले या इस बात से ही इंकार कर दे कि उसने कभी ऐसा कोई हुक्म जारी किया था!
बहरहाल मैंने देखा कि एक भव्य और दिव्य व्यक्तित्व मेरे सामने खडा था. यूरोप की किसी फैक्ट्री से निकल कर सीधे भारत के किसी शो रूम में पहुँची किसी करोड़टाकिया कार की तरह. झक सफ़ेद चमचमाते कपडों में. ऐसे सफ़ेद कपडे जैसे 'तेरी कमीज मेरी कमीज से ज्यादा सफ़ेद क्यों?' टाईप के विज्ञापनों में भी नहीं दिखाई देते. कुरते से ज्यादा सफ़ेद पायजामा, पायजामे से ज्यादा सफ़ेद कुरता और इन दोनों से ज्यादा सफ़ेद टोपी. गजब सफेदी थी, इस देश के दरिद्रों के चरित्र की तरह. में तो अभिभूत हो गया यह सफेदी देख कर ही.
अब इसके पहले की भूत हो जाऊं मैंने पूछ लेना ही मुनासिब समझा, "आपकी तारीफ़?" "जी मुझे नेता कहते हैं. मैं इस देश का कर्णधार हूँ." इतनी मधुर आवाज आई की लगा आकाशवाणी हो रही हो. आकाशवाणी की याद आते ही लगा जैसे समाचार सुन रहा होऊं और फिर मैं लगा प्राईवेट रेडियो-टीवी चैनलों को कोसने. ये चाहे कितनी सुन्दर लड़कियों को बतौर जोकी और एंकर रख लें, पर इतनी मधुर आवाज उनसे कभी नहीं सुनी जा सकती.
"क्यों? क्या हुआ? कहाँ खो गए वत्स?" शायद सपने में भी मुद्दे से भटकते मेरे ध्यान को नेताजी ने ताड़ लिया था. नेताजी की दुबारा से आई और भी ज्यादा मधुर आवाज ने मुझे नए सिरे से सचेत किया और मैं हदबदाया हुआ घर के भीतर भागा. इस ग्लानिबोध के साथ कि अपने द्वार पर खडे इतने बडे शख्स की मैं ढंग से अगवानी तक नहीं कर पा रहा हूँ. बहरहाल जैसे-तैसे ढूंढ कर अपनी इकलौती टुटही कुर्सी लेकर हाजिर हुआ.
मैं उसे पोछने ही जा रहा था कि नेताजी ने बडे आग्रह के साथ मेरे हाथ पकड़ लिए, "अरे-अरे ये क्या कर रहे हैं आप? में इसी पर बैठ लूंगा." नेताजी की वाणी ने एक बार फिर मेरे कानों में मिश्री की मिठास घोल दी.
"अरे नहीं. कई दिनों से रखी-रखी बहुत गंदी हो गई है और टुटही तो है ही. कहीं आप को किरचें-विराचें गड़ गईं तो ...."
"ही-ही-ही ........ आप पत्रकार लोग भी गजब होते हैं!" कल्कलाते झरने सी नेताजी की वह हँसी हिन्दी सिनेमा की किस हिरोईन जैसी थी, मैं याद नहीं कर पा रहा हूँ. "भला हमें कुर्सी की किरच भी कभी गड़ सकती है?"
नेताजी की इस बात का मर्म मैं सचमुच नहीं समझ पाया. मैं उन्हें वैसे ही भकुआया हुआ ताकता रह गया जैसे पिछडे हुए गाँव तकते हैं नई आयी सरकारी योजनाओं को. नेताजी ने लगता है मेरी नजर को ताड़ लिया. तभी तो उन्होने मुझे समझाने वाले अंदाज में बडे प्यार से कहा, "अरे भाई इतना तो आप जानते ही हैं की कुर्सी ही हमारा ईमान है. फिर भला कुर्सी की किरच हमें कैसे चुभ सकती है?
"थोडा अर्था कर कहें महराज!" आखिरकार मैंने हिम्मत करके बिनती कर ही दी.
"नहीं समझे" उन्होने अलजेबरा के मास्टरों की तरह समझाने वाले लहजे में कहा, "अब देखिए, वैसे तो कहने को हम धर्मनिरपेक्ष हैं. यानी हमारा कोई धर्म नहीं है. लेकिन असल में यही हमारा धर्म है. और कुर्सी उस धर्म का मर्म है. बस यह समझ लो ऑक्सीजन के बगैर तो हम दो-चार दिन जी सकते हैं, लेकिन कुर्सी के बगैर हमारी आत्मा एक पल के लिए भी हमारे शरीर में ठहर नहीं सकती. कुर्सी के लिए हम उल्लू को हंस और हंस को उल्लू तो क्या, गधे को बाप और बाप को गधा कह सकते हैं. कुर्सी के लिए हम दंगे करवा सकते है और दंगे के लिए जिम्मेदार लोगों को फांसी के तख्ते पर चढ़ जाने के बाद भी वहाँ से उतार सकते हैं."
"लेकिन ऐसा आप क्यों करते हैं?" आखिरकार हर पत्रकार की तरह मैंने भी अपने मूर्ख होने का परिचय दे ही दिया.
"अरे भाई इतना भी नहीं समझते! अगर हम उन्हें नहीं बचाएंगे आगे हमें दंगे करवाने के लिए लोग कहाँ से मिलेंगे? भला कौन बुरा आदमी हमारी भलमनसी पर भरोसा करेगा? और कैसे हम जमाए रख पाएंगे कुर्सी पर अपना कब्जा?"
"लेकिन हमने तो आपकी महान कुल परम्परा के बारे में कुछ और ही सुना था?"
"क्या सुना था वत्स?"
"यही कि आप लोग अत्यंत देशभक्त हैं और देश के लिए आपके कई पुरखों ने तो अपनी जान तक न्यौछावर कर दी है!"
"बिलकुल ठीक सुना है. इसमें गलत क्या है. लेकिन बताओ क्या इस देश की आत्मा एक कुर्सी में ही नहीं बसी हुई है? क्या पूरा भारत ही एक कुर्सी नहीं है और क्या एक कुर्सी ही पूरा भारत नहीं है? और टैब अगर एक कुर्सी में pइछाली कई पीढियों से हमारी इतनी गहरी आस्था है तो इसमें बुरा क्या है? अगर हम कुर्सी के लिए अपनी जान दे सकते हैं तो दूसरों की ले लेने में भी हमारे लिए क्या हर्ज है?"
में एकदम चकरघिन्नी हो गया था। नेताजी के ये मधुर वचन और गीता का कर्मयोग मेरे दिमाग में ऐसे खुदुर-बुदुर हो रहे थे जैसे अलमुनियम की पतीली में तेज आंच पर रखे चावल और उड़द होते हैं. इसके पहले कि मैं मामले को कुछ समझ पाता भीड़ से नारों की ऊंची आवाज मेरे कान में आने लगी - बोलो कुर्सी माता की जय, बोलो कुर्सी माता की जय, बोलो कुर्सी माता की जय.......

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