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Showing posts from September, 2007

और भाग चले बापू

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इष्ट देव सांकृत्यायन अभी कल ही मैने एक कविता पढी है. चूंकि कविता मुझे अच्छी लगी, इसलिए मैने उस पर टिप्पणी भी की है। कवि ने कहा है कि उनका मन एक शाश्वत टाईप का नाला है. उससे लगातार सड़ांध आती है. हालांकि उस मन यानी नाले का कोई ओर-छोर नहीं है. उसका छोर क्या है यह तो मुझे भी नहीं दिखा, लेकिन ओर क्या है वह मुझे तुरंत दिख गया. असल में मैं कलियुग का संजय हूँ न, तो मेरे पास एक दिव्यदृष्टि है. अपने कुछ सुपरहिट टाइप भाई बंधुओं की तरह चूंकि मुझे उस दिव्यदृष्टि का असली सदुपयोग करना नहीं आता, इसलिए मैं उसका इसी तरह से फालतू इस्तेमाल करता रहता हूँ. लोग मेरी बेवकूफी को बेवकूफी के बजाय महानता समझें, इसके लिए अपनी उस दृष्टि के फालतू उपयोग के अलावा कुछ और फालतू काम करके मैं यह साबित करने की कोशिश भी करता रहता हूँ मैं उनके जैसा नहीं हूँ. उनसे अलग हूँ. ये अलग बात है कि कई बार तो मुझे खुद अपनी इस बेवकूफी पर हँसी आती है। अरे भाई दुनिया जानती है कि बेवकूफ समझदारों से अलग होते हैं. इसमें बताने और साबित करने की क्या बात है? हाथ कंगन को आरसी क्या, पढे-लिखे को फारसी क्या? साबित तो हमेशा उलटी बातें होती हैं. और

1857 के शहीदों का सरकार ने अपमान होने दिया

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क्या हम ये सब भुला देंगे -दिलीप मंडल वो आए हैं 1857 की जंग लड़ने वाले अंग्रेज बहादुरों की जीत का जश्न मनाने। वो आए। मेरठ, दिल्ली, लखनऊ गए। गदर में अंग्रेजों ने जो जुल्म ढाए थे, उसका उन्हें कोई अफसोस न था। मेरठ में वो पत्थर पर बना प्रतीक चिह्न लगाना चाहते थे जिस पर लिखा था- 60वी किंग्स रॉयल राइफल कोर की पहली बटालियन ने 10 मई और 20 सितंबर 1857 के दौरान जो साहसिक और अभूतपूर्व साहस दिखाया, उसके नाम। 1857 के दौरान लखनऊ में कहर ढाने वाले कुख्यात सर हेनरी हेवलॉक का एक वंशज भी उस टोली में है, जो गदर के समय अंग्रेजों की बहादुरी को याद करने भारत आयी है। उसके मुताबिक- अंग्रेजी राज भारत के लिए अच्छा था, और भारत में लोकतंत्र इसलिए चल रहा है क्योंकि यहां अंग्रेजी राज रहा। क्या आपको ये सुनकर कुछ याद आ रहा है। हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ब्रिटेन यात्रा के दौरान ठीक यही बात तो कही थी। ऐसे में इस बात पर आश्चर्य नही होना चाहिए, कि 1857 के दौरान अंग्रेजों की बहादुरी का जश्न मनाने के लिए भारत आने वालों को सरकार वीसा देती है और उन्हें लोगो के गुस्से से बचाने के लिए उन्हें सुरक्षा दी जाती है। वैसे मे

बादल घिरे हुए

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हरिशंकर राढ़ी कितने दिनों के बाद हैं बादल घिरे हुए . जिनको निहारते हैं चातक मरे हुए. उनकी गली से लौट के आए तो कोई क्यों जाते ही हैं वहाँ पे पापी तरे हुए. पशुओं का झुंड कोई गुजरा था रात में खुर के निशान शबनम पे दिखते पडे हुए. मरने पे उनके आख़िर आंसू बहाए कौन दिखते हैं चारो ओर ही चेहरे मरे हुए. लगता है कोई आज भी रस्ता भटक गया और आ रहा है झूठ की उंगली धरे हुए.

इस मर्ज की दवा क्या है?

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सत्येन्द्र प्रताप एक अखबार केस्थानीय संपादक के बारे में खबर आई कि वे रंगरेलियां बनाते हुए देखे गए. कहा जा रहा है कि एक स्थानीय अखबार के रिपोर्टर ने खबर भी फाइल कर दी थी. हालांकि इस तरह की खबरें अखबार और चैनल की दुनिया में आम है और आए दिन आती रही हैं. लेकिन दिल्ली और बड़े महानगरों से जाकर छोटे शहरों में पत्रकारिता के गुर सिखाने वाले स्थानीय संपादकों ने ये खेल शुरु कर दिया है. राष्ट्रीय चैनलों के कुछ नामी गिरामी हस्तियों के तो अपने जूनियर और ट्रेनी लड़कियों के एबार्शन कराए जाने तक की कनफुसकी होती रहती है. खबर की दुिनया में जब अखबार में किसी लड़के और लड़की के बारे में रंगरेिलयां मनाते हुए धरे गए, खबर लगती है तो उन्हें बहुत हेय दृष्टि से देखा जाता है. लेिकन उन िविद्वानों का क्या िकया जाए जो नौकरी देने की स्थिति में रहते हैं और जब कोई लड़की उनसे नौकरी मांगने आती है तो उसके सौन्दर्य को योग्यता का मानदंड बनाया जाता है और अगर वह लड़की समझौता करने को तैयार हो जाती है तो उसे प्रोन्नति मिलने और बड़ी पत्रकार बनने में देर नहीं लगती. एक नामी िगरामी तेज - तर्रार और युवा स्थानीय संपादक के बारे में

वो नही चाहते कि कोई इसे पढ़े, इसलिए आपका धर्म है कि इसे गाएं, गुनगुनाएं

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-दिलीप मंडल याद है आपको वो कविता। झांसी की रानी। देश के अमूमन हर राज्य की स्कूली किताबों में सुभद्रा कुमारी चौहान की ये कविता पढ़ाई जाती है। लेकिन राजस्थान बीजेपी को इसकी कुछ पंक्तियां अश्लील लगती है। इसलिए कविता तो छपती है लेकिन आपत्तिजनक लाइनें उसमें से हटा दी जाती हैं। पहले ये देखिए कि वो लाइनें कौन सी हैं, जिन्हें बीजेपी आपकी स्मृति से हटाना चाहती है। अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी राजधानी थी बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी विजय मिली पर अंग्रेज़ों की, फिर सेना घिर आई थी अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय घिरी अब रानी थी बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार घोड़ा अड़ा नया घोड़ा था, इतने में आ गये सवार रानी एक शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार पर वार घायल होकर गिरी सिंहनी उसे

ये क्या क्रिकेट-क्रिकेट लगा रखा है?

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सत्येन्द्र प्रताप पहले टेस्ट मैच बहुत ही झेलाऊ था, फिर पचास ओवर का मैच शुरु हुआ, वह भी झेलाऊ साबित हुआ तो २०-२० आ गया. क्या खेल है भाई! भारत पाकिस्तान का मैच जोहान्सबर्ग में और सन्नाटा दिल्ली की सड़कों पर. मुझे तो इस बत की खुशी हुई कि आफिस से निकला तो खाली बस मिल गई, सड़क पर सन्नाटा पसरा था. मोहल्ले में पहुंचा तो पटाखों के कागज से सड़कें पट गईं थीं और लोग पटाखे पर पटाखे दागे जा रहे थे. अरे भाई कोई मुझे भी तो बताए कि आखिर इस खेल में क्या मजा है? कहने को तो इस खेल में २२ खिलाडी होते हैं, लेकिन खेलते दो ही हैं. उसमें भी एक लड़का जो गेंद फेकता है वह कुछ मेहनत करता है, दूसरा पटरा नुमा एक उपकरण लेकर खड़ा रहता है. फील्ड में ग्यारह खिलाडी बल्लेबाजी कर रहे खिलाडी का मुंह ताकते रहते हैं कि कुछ तो रोजगार दो. खेल का टाइम भी क्या खाक कम किया गया है? हाकी और फुटबाल एक से डेढ़ घंटे में निपट जाता है और उसपर भी जो खेलता है उसका एंड़ी का पसीना माथे पर आ जाता है. यहां तो भाई लोग मौज करते हैं. हां, धूप मेंखड़े होकर पसीना जरुर बहाते हैं. वैसे अगर जाड़े का वक्त हुआ तो धूप में खड़े होना भी मजेदार अनुभव हो जा

आम जनता की आस्था

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इष्ट देव सांकृत्यायन दिलली हाईकोर्ट ने जस्टिस सभरवाल के मसले को लेकर जिन चार पत्रकारों को सजा सुनाई थी, सुप्रीम कोर्ट ने उनकी सजा पर रोक लगा दी है. हाईकोर्ट ने उन्हें यह सजा इसलिए दी थी क्योंकि उसे ऐसा लगा था कि मिड डे में छापे लेख से कोर्ट की छवि धूमिल हो रही थी. सुप्रीम कोर्ट ने इस सजा के खिलाफ पत्रकारों की याचिका किस आधार पर स्वीकारी और किस कारण से हाईकोर्ट द्वारा दी गई सजा पर रोक लगाई, यह बात तो अभी स्पष्ट नहीं हो सकी है लेकिन पत्रकार बिरादरी और आम जन का मानना है कि इससे भारत की न्यायिक प्रणाली में आम जनता का विश्वास बहाल होता है. आस्था और विश्वास की बहाली का उपाय सच का गला दबाना नहीं उसकी पड़ताल करना है. यह जानना है कि अगर मीडिया ने किसी पर कोई आरोप लगाया है तो ऐसा उसने क्यों किया है? आखिर इस आरोप के क्या आधार हैं उसके पास? उन आधारों पर गौर किया जाना चाहिए. उसके तर्कों को समय और अनुभव की कसौटी पर कसा जाना चाहिए. इसके बाद अगर लगे कि यह तर्क माने जाने लायक हैं, तभी माना जाना चाहिए. तमाम पत्रकारों की ओर से विरोध के बावजूद मैं यह मानता हूँ कि मीडिया के आचार संहिता लाई जानी चाहिए. ल

वे हमारे साथ सदैव रहना चाहते है!

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-दिलीप मंडल उन्होंने दिल्ली यूनिवर्सिटी कैंपस इलाके में लड़कियों के साथ छेड़खानी की। उन्होंने लड़कियो के साथ जबर्दस्ती की कोशिश की। लेकिन वो हमारी आपकी सुरक्षा के लिए दिल्ली पुलिस में भर्ती होंगे। सरकार उनके साथ है। इसलिए आप चाहें या न चाहें, वो हमारी सुरक्षा करेंगे। वो हमारे लिए हमारे साथ सदैव रहना चाहते हैं। डीयू की लड़कियां कितनी गैरवाजिब मांग उठा रही हैं। वो चाहती है कि छेड़खानी करने वाले लफंगे जिस बैच में शामिल हों, उस बैच को नौकरी पर न रखा जाए। वो चाहती है कि दिल्ली पुलिस और केंद्रीय गृह मंत्री शिवराज पाटिल उनकी मांग मान लें। जिस एनएसयूआई को डीयू ने खूबसूरत पोस्टर और संगठन का जलवा देखकर हाल ही मे जिताया है और जिसके नेताओं ने सोनिया गाधी के साथ तस्वीरे खिचाई थी, वो खामोशी साधे हुए है। डीयू स्टूडेंट यूनियन की प्रेसिडेट लड़की, दिल्ली की मुख्यमंत्री महिला, देश चलाने वाली एक महिला - और सभी कांग्रेसी, जिसका हाथ आम आदमी के साथ है, लेकिन डीयू की लड़कियों की एक मामूली सी और बिल्कुल सही मांग के समर्थन में कोई नही आ रहा है। आप किस ओर खड़ें है?

दूर आसमान रहे

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रतन उडो तो ऐसे कि पीछे हर इक उडान रहे इतना आगे बढ़ो कि दूर आसमान रहे हद हो इतना कि कोई बात भी न हो पाए फासला ऐसा तेरे मेरे दरमियान रहे न ही माजी न ही आगे की बात हो कोई न कुछ न संग तेरी यादों का सामान रहे हुए हो दूर मगर मेरी सदा रखना याद कभी न हम मिलें दिल में यही गुमान रहे भूल से मिल गए कहीँ भी एक पल के लिए निगाह बात करे लब ये बेजुबान रहे पाक तुम भी रहो और पाक हमें भी रखना चाक न दिल हो न तन ही लहूलुहान रहे हंसी दुनियाँ है मेरी तुम न इसे नर्क बना पान हो मुँह में तो हाथों में पीकदान रहे अगर करोगे ग़लत बद्दुआ करेंगे सभी कि परेशान मैं ज्यों तू भी परेशान रहे ए रतन कर दुआ कि सारा जहां रोशन हो और मेरे सिर पे भी खुदा का साईबान रहे

कृपया इनसे मुग्ध न हों

-दिलीप मण्डल क्या आप उन लोगों में हैं जो लालू यादव के भदेसपन के दीवाने हैं? क्या मुलायम सिंह आपकी नजर में समाजवादी नेता हैं? क्या उत्तर भारत की ओबीसी पॉलिटिक्स से आपको अब भी किसी चमत्कार की उम्मीद है? क्या आप उन लोगों में हैं, जिन्हें लगता है कि इन जातियों का उभार सांप्रदायिकता को रोक सकता है? अगर आप ऐसे भ्रमों के बीच जी रहे हैं तो आपके लिए ये जाग जाने का समय है। 1960 के दशक से चली आ रही उत्तर भारत की सबसे मजबूत और प्रभावशाली राजनीतिक धारा के अस्त होने का समय आ गया है। ये धारा समाजवाद, लोहियावाद और कांग्रेस विरोध से शुरू होकर अब आरजेडी, समाजवादी पार्टी, इंडियन नेशनल लोकदल, समता पार्टी आदि समूहों में खंड खंड हो चुकी है। गैर-कांग्रेसवाद का अंत वैसे ही हो चुका है। टुकड़े टुकड़े में बंट जाना इस राजनीति के अंत का कारण नहीं है। पिछड़ा राजनीति शुरुआत से ही खंड-खंड ही रही है। बुरी बात ये है कि पिछड़ावाद अब अपनी सकारात्मक ऊर्जा यानी समाज और राजनीति को अच्छे के लिए बदलने की क्षमता लगभग खो चुका है। पिछड़ा राजनीति के पतन में दोष किसका है, इसका हिसाब इतिहास लेखक जरूर करेंगे। लेकिन इस मामले में सारा

सत्यमेव जयते का सच

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इष्ट देव सांकृत्यायन इससे ज्यादा बेशर्मी की बात और क्या हो सकती है कि 'सत्यमेव जयते' का उद्घोष करने और देश भर को न्याय देने का दंभ भरने वाली न्यायपालिका खुद ही अन्याय का गढ़ बन जाए. वैसे यह कोई नई बात नहीं है. हिंदी साहित्य और फिल्मों में यह बात बार-बार कही गई है. श्रीलाल शुक्ल की अमर कृति 'राग दरबारी' का लंगड़ और 'अंधा कानून' जैसी फिल्में घुमा-फिरा कर यही बात कहना चाहती रहीं हैं। न्याय की मूर्तियों को उस अपराधी साबित करने वाला कोई सबूत जंचता ही नहीं जो उनकी कृपा खरीद लेता है. न्याय खरीदा-बेचा जाता है, इसका इससे बड़ा सबूत और क्या हो सकता है कि अकेले जस्टिस सब्बरवाल ही नहीं कई और जस्टिस अरबों की सम्पत्ति के मालिक हैं. इसी सिलसिले में हाल ही में समकालीन जनमत पर आए दिलीप मंडल के पोस्ट पर कहीं और किसी सज्जन ने यह सवाल उठाया है कि पत्रकार कौन से दूध के धुले हैं. लेकिन मित्र सवाल किसी पेशे, पेशेवर या व्यक्ति के दूध या शराब के धुले होने का नहीं है. सवाल कर्म और कुकर्म का है. पत्रकार भी ऐसे हैं जो रिश्वत लेते हैं, ब्लैकमेलिंग करते हैं और दलाली करते हैं. यह देश की व्यवस

ध्यान का इतिहास है जरूरी

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इष्ट देव सांकृत्यायन तिथि : 19 सितंबर 2007, बुधवार मुकाम : दिल्ली में लोदी रोड स्थित श्री सत्य साईँ सेंटर का ऑडिटोरियम लंबे समय बाद स्वामी वेद भारती का साथ था. दशमेश एजुकेशनल चैरिटेबल ट्रस्ट ने यह आयोजन किया था और इसके कर्णधार थे राय साहब. राय साहब यानी वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय. जब मैं पहुँचा तब तक 'ध्यान का वैश्विक प्रभाव' विषय पर केंद्रित इस व्याख्यान की औपचारिक शुरुआत हो चुकी थी. राय साहब बता रहे थे स्वामी वेद भारती के बारे में. निश्चित रुप से मेरे जैसे लोगों के लिए इसमें कोई रूचिकर बात नहीं थी, जो पहले से ही स्वामी जी के बारे में काफी कुछ जानते थे. लेकिन उन तमाम लोगों के लिए यह दिलचस्प था जो पहले से ज्यादा कुछ नहीं जानते थे. स्वामी जी से मेरा परिचय 'योग इंटरनेशनल' पत्रिका के मार्फ़त हुआ था. अमेरिका से छपने वाली इस पत्रिका में स्वामी जी की योजनाओं के बारे में जानकारी दी गई थी और उनका भारत का पूरा पता भी उसमें था. बाद में दिल्ली से छपने वाली लाइफ पोजिटिव में भी मैंने स्वामी जी पर एक पूरा लेख पढा और फिर मेरे माना में उनका एक इंटरव्यू करने की इच्छा हुई. ऋषिकेश स

गठबंधन के देवता

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इष्ट देव सांकृत्यायन बहुत पहले एक कवि मित्र ने एक दार्शनिक मित्र से सवाल किया था. मैं भी वहाँ मौजूद था, लेकिन उन दिनों अपनी दिलचस्पी का विषय न होने के नाते पचड़े में पड़ना मैंने जरूरी नहीं समझा. फिर भी जब दार्शनिक मित्र की घिग्घी बंधती देखी तो मजा आने लगा और मैं भी उसमें रूचि लेने लगा. असल में ऐसा कोई सवाल होता नहीं था जिसका ठीक-ठीक जवाब हमारे दार्शनिक मित्र के पास न होता रहा हो। योग के गुरुओं की तरह. जैसे वे क़मर में दर्द से लेकर कैंसर और एड्स तक का इलाज बता देते हैं, ऐसे ही हमारे दार्शनिक मित्र के पास भारत-पाकिस्तान-नेपाल ही नहीं इथिओपिया से लेकर ईस्ट तिमोर तक की सभी समस्याओं के शर्तिया हल होते थे. ईश्वर के होने - न होने का सवाल ही नहीं उसका पता-ठिकाना तक वो बता देते थे. दुर्भाग्य से इमेल और मोबाइल के बारे में तब तक उन्हें पता नहीं चला था, वरना शायद वे वह सब भी बता देते. असल में कवि मित्र इस बात पर अड़ा था कि जब हर रुप में ईश्वर एक ही है तो इतने सारे भगवान बनाने और उन्हें अलग-अलग पूजने की जरूरत क्या थी? यह तो हमारे हिंदू धर्म की एकरूपता पर, हमारी आस्था की एकनिष्ठता पर सवाल है. दार्शनि

दमन का दौर और ईरान में मानवाधिकार

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सत्येन्द्र प्रताप नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित शीरीन ऐबादी ने आजदेह मोआवेनी के साथ मिलकर "आज का इरान - क्रान्ति और आशा की दास्तान" नामक पुस्तक मे इरान के चार शासन कालों का वर्णन किया है . शीरीन ने ईरान में शासन के विभिन्न दौर देखे हैं।वास्तव में यह पुस्तव उनकी आत्मकथा है, जिसने महिला स्वतंत्रता के साथ ईरान के शासकों द्वारा थोपे गए इस्लामी कानून के दंश को झेला है. विद्रोह का दौर और जनता की आशा के विपरीत चल रही सरकार औऱ ईराकी हमले के साथ-साथ पश्चिमी देशों के हस्तक्षेप का खेल, ईरान में चलता रहा है. कभी जिंदा रहने की घुटन तो कभी इस्लामी कानूनों के माध्यम से ही मानवाधिकारों के लिए संघर्ष का एक लंबा दौर देखा और विश्व के विभिन्न देशों के मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का सम्मान पाते हुए एबादी को विश्व का सबसे सम्मानपूर्ण ...नोबेल शान्ति पुरस्कार... मिला. किताब की शुरुआत उन्नीस अगस्त १९५३ से हुई है जब लोकप्रिय मुसादेघ की जनवादी सरकार का तख्ता पलट कर शाह के समर्थकों ने राष्ट्रीय रेडियो नेटवर्क पर कब्जा जमा लिया. एबादी का कहना है कि इसके पीछे अमेरिका की तेल राजनीति का हाथ था. एबादी ने ध

राम न थे, न हैं और न होंगे कभी

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इष्ट देव सांकृत्यायन बेचारी केंद्र सरकार ने गलती से एक सही हलफनामा क्या दे दिया मुसीबत हो गई. इस देश में सबसे ज्यादा संकट सच बोलने पर ही है. आप सच के साथ प्रयोग के नाम पर सच की बारहां कचूमर निकालते रहिए, किसी को कोई दर्द नहीं होगा. और तो और, लोग आपकी पूजा ही करने लगेंगे। झूठ पर झूठ बोलते जाइए, किसी को कोई आपत्ति नहीं होगी. पिछली सरकार के बजट घाटे को आप फिस्कल घाटे की तरह पेश करिए, समिति बैठाकर उससे कहवाइए कि ट्रेन में आग दंगाई भीड़ ने नहीं यात्रियों ने खुद लगाई..... या फिर कुछ भी जो मन आए बकिए; किसी को कोई एतराज नहीं होगा. एतराज अगर होगा तो तभी जब आप सच बोलेंगे. जैसे केंद्र सरकार ने सच बोला. केंद्र सरकार ने अपने इतने लंबे कार्यकाल में पहली बार सच बोला और मुसीबत हो गई. भाजपा अलग अपनी जंग लग गई तलवारें निकालने लग गई. दादा कामरेड अलग गोलमोल बोलने लग गए. विहिप ने अलग गोले दागने शुरू कर दिए. ये अलग बात है कि सारे गोले बरसात का सीजन होने के नाते पिछले १५ सालों से सीलन ग्रस्त पडे हैं, वरना मैं सोच रहा हूँ कि फूट जाते तो क्या होता. अरे और तो और, साठ पैसे का नमक नौ रूपए किलो बिकने लगा, सवा रूपए

पाकिस्तान में खुफिया एजेंसी आई एस आई की समानान्तर सरकार चलती है- नवाज

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सत्येन्द्र प्रताप पाकिस्तान के अखबार दैनिक जंग के राजनीतिक संपादक सुहैल वड़ाएच ने.. गद्दार कौन - नवाज शरीफ की कहानी उनकी जुबानी.. पुस्तक में पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ और उनके करीबियों के साक्षात्कारों को संकलित किया है. इस पुस्तक में नवाज शरीफ ,उनके छोटे भाई और पंजाब के मुख्यमंत्री रहे शहबाज शरीफ, नवाज की बेगम कुलसुम नवाज ,पुत्र हुसैन नवाज छोटे बेटे हसन नवाज, नवाज के करीबी सेनाधिकारी- सेना सचिव ब्रिगेडियर जावेद मलिक और दामाद कैप्टन सफदर के साछात्कार शामिल हैं. पुस्तक में बड़ी बेबाकी से पाकिस्तान की आंतरिक स्थिति और विदेशी संबंधों में झांकने की कोशिश की गई है. साथ ही भारत से अलग होने और पाकिस्तान के निर्माण से लेकर आज तक, सत्ता और विदेशनीति में आई एस आई की भूमिका के बारे में पूर्व प्रधानमंत्री की राय जानने की कोशिश है. नवाज पर संपत्ति अर्जित करने और सत्ता के दुरुपयोग पर भी उनकी राय जानने की स्पस्ट कोशिश की गई है । ये साछात्कार उस समय लिए गए हैं जब नवाज, जद्दा और लंदन में निर्वासित जीवन बिता रहे थे. पुस्तक के पहले अध्याय में नवाज शरीफ द्वारा पाकिस्तान में परमाणु परीक्षण क

ग़ज़ल

विनय ओझा स्नेहिल हर एक शख्स बेज़ुबान यहाँ मिलता है. सभी के क़त्ल का बयान कहाँ मिलता है.. यह और बात है उड़ सकते हैं सभी पंछी - फिर भी हर एक को आसमान कहाँ मिलता है.. सात दिन हो गए पर नींद ही नहीं आयी - दिल को दंगों में इत्मीनान कहाँ मिलता है.. न जाने कितनी रोज़ चील कौवे खाते हैं - हर एक लाश को शमशान कहाँ मिलता है..

मौत का एक दिन ....

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हरिशंकर राढ़ी मौत और मनुष्य का पारस्परिक संबंध विश्वविख्यात है. मृत्यु जैसा समर्पण मानवमात्र के प्रति और किसी का हो ही नहीं सकता. मनुष्य कितना भी भागे, कितना भी दुत्कारे पर मृत्यु का प्रेम उसके प्रति लेशमात्र भी कम नहीं. विश्व साहित्य मे प्रेम के ऐसे उदहारण इक्के-दुक्के ही मिलते हैं. जिस प्रकार चकोर का एकंनिष्ठ प्रेम चंद्रमा के प्रति होता है, रावण का राम के प्रति था, सूर्पनखा का लक्ष्मन के प्रति था, उसी प्रकार मृत्यु का एकांग प्रेम प्राणिमात्र के प्रति होता है. जीवन भर आप सुविधानुसार चाहे कितने ही लोंगो से प्रेम कर लें, पर कुमारी मृत्यु देवी का बाहुपाश मिलने के बाद आप किसी और से प्रेम नहीं कर सकते हैं. उन्हें सौतन कतई स्वीकार नहीं है. अपना देस तो महान है. सो आप जानते ही हैं, यहाँ की उदारता का कोई जवाब नहीं है. मौत से कन्नी काटने के जब सभी जुगाड़ ठप हो जाते हैं तो बुजुर्ग इसे प्रेमिका मान लेते हैं. उन्हें मालूम है कि अब टांगो मे भागने का दम नहीं है. इस उम्र में कोई प्रेमिका अव्वल तो मिलेगी नहीं, खुदा-न- खास्ता मिल भी गयी तो वह किसी कोण से मृत्यु से कम खतरनाक नहीं होगी. कब गच्चा दे जाये,

ये कैसा प्यार?

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और भी सुंदरता है इस दुनियां में कुत्ते के सिवा

हीनभावना कर रही है हिंदी की दुर्दशा

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सत्येन्द्र प्रताप आजकल अखबारनवीसों की ये सोच बन गई है कि सभी लोग अंग्रेजी ही जानते हैं, हिंदी के हर शब्द कठिन होते हैं और वे आम लोगों की समझ से परे है. दिल्ली के हिंदी पत्रकारों में ये भावना सिर चढ़कर बोल रही है. हिंदी लिखने में वे हिंदी और अन्ग्रेज़ी की खिचड़ी तैयार करते हैं और हिंदी पाठकों को परोस देते हैं. नगर निगम को एम सी डी, झुग्गी झोपड़ी को जे जे घोटाले को स्कैम , और जाने क्या क्या. यह सही है कि देश के ढाई िजलों में ही खड़ी बाली प्रचलित थी और वह भी दिल्ली के आसपास के इलाकों में. उससे आगे बढने पर कौरवी, ब्रज,अवधी, भोजपुरी, मैथिली सहित कोस कोस पर बानी और पानी बदलता रहता है. लम्बी कोशिश के बाद भारतेंदु बाबू, मुंशी प्रेमचंद,आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, जयशंकर प्रसाद जैसे गैर हिंदी भाषियों ने हिंदी को नया आयाम दिया और उम्मीद थी कि पूरा देश उसे स्वीकार कर लेगा. जब भाषाविद् कहते थे कि हिंदी के पास शब्द नहीं है, कोई निबंध नहीं है , उन दिनों आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने क्लिष्ट निबंध लिखे, जयशंकर प्रसाद ने उद्देश्यपरक कविताएं लिखीं, निराला ने राम की शक्ति पूजा जैसी कविता लिखी, आज अखबार के संपा

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